।। श्रीहरिः ।।

शरणागति

(गत ब्लोगसे आगेका )

श्रोता — ‘मामेकं शरणं व्रज’— इसमें ‘शरणं’ का क्या तात्पर्य है ?
स्वामीजी— ‘हे नाथ ! हे नाथ ! मै आपका हूँ’, हे भगवन् मैं आपका हूँ — यह तात्पर्य है । जैसे लडकी ब्याह-शादी होनेपर पतिकी हो जाती है । अब पिहरकी नहीं रही, भले ही बापके पास बैठी हो ! वह तो वहाँकी हो गई । ऐसे ही हम भगवानके हो गए, संसारके नहीं रहे । ‘हे नाथ ! मै आपका हूँ !’ —इतना होते ही भीतरसे मान लिया कि मैं संसारका, माँ-बापका, जातिका नहीं हूँ; वर्ण, आश्रम, हिंदुस्तानका नहीं हूँ । घरका, शहरका नहीं हूँ । मै हूँ ही नहीं यहाँका, मैं तो भगवानका हूँ ! — यह हो जाता है, यह शरणागति है ।
श्रोता — जैसे जगतकी मान्यता करते है, ऐसे ही भगवानकी मान्यता करनी पड़ती है ?
स्वामीजी — जगतकी मान्यता हटानी पड़ती है और भगवानकी मान्यता करनी पड़ती है, करो तो ! जगत् माना हुआ है, है नहीं ! माँ-बाप, भाई, मनुष्य केवल माना हुआ है; है नहीं, ‘कर्ताः इति मन्यते’ ! माँ को किसीने देखा नहीं है, बोलो किसीने देखा हो तो ? बापको किसीने देखा नहीं है, माना हुआ है । जब बाप बना तब तो बालककी उत्पत्ति ही नहीं हुई थी ! सिवाय मान्यताके और कोई प्रबल कारण है कोई ? अतः माना हुआ न मानो तो मिटा ! मान्यतामें बैठे है तो भगवानकी भी मान्यता ही करनी पड़ेगी ! आप मारवाड़ी भाषा समझते हो तो मुझे मारवाड़ी भाषामें ही बोलना पडेगा ! अंग्रेज भगवानकी मूर्ति बनाते है तो अंग्रेज जैसी ही बनाते है ,बंगाली मूर्तिकार बंगाली जैसी ही बनाता है । कुत्तेका भगवान कुत्ते जैसा ही होगा ! हमारा भगवान हमारे जैसा ही होगा ! कोई M.A. पढ़ा हुआ हो तो भी बालकको सिखायेगा तो A…A….B….B…करना पड़ेगा ही ! अ, आ, इ, ई....बोलना पड़ेगा ! बालककी अवस्था में आकर ही बालकको पढ़ा सकता है, अपनी अवस्थामें रहकर समझा देगा ? चाहे M.A. हो या आचार्य हो ? इस वास्ते गुरुका शिष्यके भीतर अवतार होता है । अवतार मानो उतरना, तब समझा सकता है, नहीं तो कैसे समझा सकता है ? आप जिस भाषा, द्रष्टान्त समझो, वही भाषामें द्रष्टान्त मेरेको कहना पड़ेगा ! नहीं तो कैसे समझोगे ? इस तरह भगवानको प्राप्त कर सकते है । भाव व्यक्त करनेके लिए शरीर, मन, बुद्धि, इन्द्रियों है, इसके सिवा हम क्या करें ?
यह परिवर्तनशीलमें अपरिवर्तनशील है, उत्पत्ति-विनाश होता है, उसमें वह ‘है’ रूप से है ही ! साधनाकालमें तो उसका चिंतन करना पडता है; मन, बुद्धि उसमे लगानी पड़ती है । साध्य परिवर्तनशील नहीं होगा, साधन परिवर्तनशील होगा । देखो साधक, साधन और साध्य — यह तीन है । साधक साधना करके साध्यको प्राप्त करता है, तो साधक पहले साधनरूप बनेगा । साधन बनकर फिर साध्यमें मिल जायेगा ! साधक और साधन; दोनों छूट जायेगा ।
श्रोता — जैसे संसारकी मान्यता है, ऐसे ही परमात्माकी मान्यता है ?
स्वामीजी — परमात्माकी मान्यता नहीं है, परमात्मा ‘है’ । आप मान्यता समझो तो आपकी बात है । उस ‘है’ में ही मान्यता होती है । मान्यतामें मान्यता कैसे ठहरेगी ? आप स्वयं हो तो कोई चीज उथल-पुथल कर सकते हो, आप ही नहीं हो तो उथल-पुथल कैसे करोगे ? आप चाहे कितने ही तर्क कर लो, आप बातोंमें मेरेको नहीं जीत सकते हो (हास्य) !!! युक्तिसे बात करो आप । पृथ्वी न हो तो कितना ही चतुर नृत्यकार नाच सकता है क्या ? आधारके बिना कैसे बात चलेगी ? आधारका पता ही नहीं है ? बिना प्रकाश आप देख सकते नहीं, पर आप प्रकाशकी तरफ देखते ही नहीं हो, और सब कुछ देखते हो; उधर ध्यान जाता ही नहीं आपका !
क्षत्रिय विद्यालय कलकत्तामें है, उसमें एकबार जानेका काम पड़ा । एक बालकने कहा कि परमात्मा नहीं है । तो मैंने बोला भाई ! अपनी फ़जीती नहीं करानी चाहिए, बेइज्जती नहीं करानी चाहिए ! क्योंकि आपने सब जगह देख लिया, अनंत ब्रह्माण्डोंमें खोज लिया ? और यदि सब देखा है, जानते हो तो आप ही ईश्वर हो गये ! आप ईश्वर नहीं है, ऐसा कैसे कह सकते हो ? और यदि आप सब जानते नहीं हो, देखा नहीं; तो आपकी बातको मानें वह डबल मुर्ख है ! आप जानते तो हो नहीं, और कहते हो कि ईश्वर है ही नहीं ! आप जानते हो ? उसने कहा — ‘मैं जानता हू’ ! तो तेरे सिरके केश कितने है बताओ ? तो उसने कहा, वह तो आप ही नहीं बता सकते ! तो मैंने कहा कि मैं तो सब जाननेका दम भरता ही नहीं हूँ ! आप कहते हो कि मैं सब जानता हूँ, तो आप पर लागु होगा ! अच्छा यह नहीं सही ! आप इस स्कुलमें छोटेपनसे पढते-पढते बड़े हो गये, बताओ यह स्कुलकी सीढियों कितनी है ? आपने ध्यान ही नहीं दिया है, रोजाना चढ़ते-उतरने पर भी ! जब इतनी स्थूल चीज भी ध्यान दिए बिना नहीं बता सकते, तो परमात्माको कैसे बता सकते हो ?
मेरेको दुःख इस बातका है कि आप जानना चाहते ही नहीं ! इधर द्रष्टि देना चाहते ही नहीं ! आप जान सकते नहीं, ऐसा मैं नहीं कहता हूँ । आप सबलोग जान सकते हो, पर चाहते ही नहीं तो क्या करें आपको ? परिवार नियोजनमें कितना बड़ा भारी नुकसान है, पता ही नहीं ! किसीने मुझे सुनाया कि विदेशोमें बड़े-बड़े बुद्धिमान है, वह भारतीय है । उनका तो आप जन्मना बंद कर देते हो ! भारतीय दर्शन जितना गहरा है, उतना गहरा दर्शन किसी देशका हो तो बताओ ? आपको चेलेंज देता हूँ, खोजके लाओ, मेरेको बताओ ! इतने बुद्धिमानका तो नाश कर देते हो, जन्म ही नहीं लेने देते हो ! थोड़ेसे आरामके लिए कितना नुकसान करते हो । सुखासक्ति ही पतनका मूल कारण है, संतोंकी कृपासे मिली है यह बात मुझको ! यहीं संसारके भोगोमें अटके हो आप, महान पतन होगा । वही सुखके पीछे पड़े हो, क्या दशा होगी देशकी, जनताकी ? महान पतन होगा ।
—दि.१९/१२/१९९४ प्रातः५ बजे,प्रार्थनाकालीन प्रवचनसे
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