साधन तत्व
मनकी स्थिरता और चंचलता जिस प्रकाशमें होते है, उसमें स्थिति स्वतः है । चंचलता और स्थिरतासे वृत्ति हटा लो । यह खुदको हटाना पड़ेगा । एक मुमुक्षा होती है और एक लोभ होता है । मुमुक्षा तो कल्याण करती है और लोभको गीतजीमें नरकोंका द्वार बताया है । तो अपने सुनते है उसमें अच्छी बातोंमे लोभ पैदा हो जाता है, यह कल्याण नहीं करता है । साधककी योग्यता, श्रद्धा, विश्वास और स्वतः उसमें प्रेम होनेसे साधन सिद्ध होता है । यदि श्रद्धा, विश्वास और लगन नहीं है, केवल महिमा सुनकर लग रहा है — यह लालच है, लोभ है । उससे काम सिद्ध नहीं होता है । जिस साधनको कर सकता है, उसको तो करता नहीं और जिस साधनको कर सकते नहीं उसकी चाहना; यह लोभ है । इससे साधक भटक जाता है, उन्नति नहीं कर सकता ।
आप चाहते हो कि मनकी चंचलता और स्थिरतासे अलग जो तत्व है उसका अनुभव हो, तो उसका अनुभव तब होगा जब आप दोनोंसे अपना अलग अनुभव कर लें । यह योग्यता होनी चाहिए आपमें, नहीं तो जिसमें आपकी योग्यता हो वह साधन करो । नहीं तो सबसे सीधा, सरल साधन है — राम...राम.....राम करो । यह छोड़ो नहीं । भोजन करें तो भी मनमें राम-राम चलता रहें, शौच, स्नान करें तो भी रामनाम चलता रहें, नेत्रोंसे दिखता रहे । यह आप कर सकते हो, उसको तो करते नहीं और जो चाहते हो वह होता नहीं ! तो फिर साधनसे रीते(खाली) रह जाओगे । आप राम राम राम कर सकते हो । छूट जाय तो हे नाथ ! हे नाथ !! पुकारो । भूल जाओ तो दुःख हो की मैं कैसे भूल गया ? यदि अभी मर जाते तो क्या दशा होती ? बार-बार हे नाथ भूलूँ नहीं —यह प्रार्थना करते रहो । तो यह साधन सिद्ध हो जाएगा । आप यह कर सकते हो की नहीं बताओ ? बोलो ? एक बात सभी भाई-बहन ध्यान से सुनें, मार्मिक बात है कि साधन कोई छोटा नहीं होता है । अपनी योग्यताके अनुसार होगा, वही बढ़िया होगा । जिसमें आपका प्रेम, श्रद्धा, विश्वास हो और समझमें आए कि यह मैं कर सकता हूँ, वही साधन आपके लिए बढ़िया होगा ।
मनमें चंचलता और स्थिरता तो आती है और जाती है । आप नित्य स्थिर हो । उसके साथ मिलो मत, स्थिर हो जाएगा । आता है और जाता है, वह आपसे अलग है । आगंतुक है मुसाफिरकी तरह ! घरका मालिक आता है तो भी रहता है, जाता है तो भी रहता है । और आने-जानेवाला घरमें बैठा हो तो भी घरमें नहीं है । ‘चंदनकी चुटकी भली गाड़ो भलो न काठ, चतुर नर एक ही भलो मूरख भला न साठ’ । तो आपकी समझमें आता हो, संदेह हो तो प्रगट करो ! उसपर विचार करें । हमसबमें एक कमी होती है । क्या कमी है ? कोई छूमंतर कर देगा तो हो जाएगा ! गुरुजी, महात्मा, संत, भगवान् कर देंगे — यह आशा गलत है । आप कर सकते हो उतना करो तो छूमंतरवाला भी मिल जाएगा । और खुद करो नहीं और दूसरा कर देगा यह कभी होगा नहीं । आपकी लगन न हो तो कभी होनेवाला नहीं है । जैसे एक बालक है, चलना सिखता है । सीडी पर चढ़नेका प्रयत्न करता है, हाथ, पैर और पेटका ज़ोर लगाकर महेनत करता है तो माँ थोड़ा सहारा लगा देती है तो वह चढ जाता है । माँ पडने नहीं देती, पासमें खड़ी है, झेल लेती है । पर आप जितना चढ सकते हो उतना नहीं चढो, कर सकते हो उतना न करो तो जो हमारी सदाकी माँ, हमारे सबकी है वह कैसे आए ? ‘त्वमेव माता च पिता त्वमेव’ । अपनी बल, बुद्धि, समझ लगाकर अपना साधन करो । उसमें आप अपना समय, समझ, सामग्री और शक्तिको बचाओ मत ! बुराई भी बिना बलके नहीं होती है ! बुराई कर लेगें और भलाई होती नहीं— यह गलत बात है । होती नहीं तो बुराई कैसे कर ली ? झूठ बोलता है, सच बोलना होता नहीं, गलतीकी बात है । बोलनेकी शक्ति न होती तो झूठ कैसे बोलते ?
एक और बात बताऊँ । घरमें जितने है, उन सबको सुख पहुँचाओ, आदर करो । महिमा करो, आराम दो, भोजन दो, सुख दो और उनसे सुख चाहो मत । यह महेनत करते कराते आप इसको १२ महीनोंमें सिद्ध कर लो । आप लेनेका उद्देश हटाओ । केवल देनेका उद्देश रखो ! सेवा करते रहो, चाहो मत ! यदि आपने यह १२ महीनोंमें कर लिया तो बड़ा भारी काम कर लिया, यह साधना है ।
तीसरा साधन; आप सबको सुख पहुँचाओ, सुख न पहुँचाओ तो किसीको दुःख मत दो । शरीरसे, वाणीसे , मनसे किसीका बुरा मत करो, बुरा मत चाहो ! यह व्रत, नियम ले लो । जैसे एकादशीका व्रत करते है तो एक दाना अनाजका खा लेते है तो व्रत भंग हो जाता है । पेट तो भरता नहीं और व्रत भंग हो गया ! ऐसे ही किसीका बुरा चाहा तो व्रत भंग हो गया ।
किसीकी मौत पर राजी होना, उसकी हत्यामें शामिल होनेके समान है, मनसे शामिल हो गए कि नहीं ? किसीकी मौतमें राजी होना पापकी बात है क्योंकि कोई भी मरना चाहता नहीं है । आप साधना करके ऊँचा उठना चाहते हो तो अनुकूलतामें राजी मत हो ! आराम, सुख लेनेसे, उससे राजी होनेसे पुण्य नष्ट होते है । यह आपकी कमाई हुई पूंजी है । उसको अपने पास रहने दो । आप साधना करो; संत, महात्मा, भगवान् मदद करेंगे । अपनी सामर्थ्य, समय, सामग्री और समझ पूरी लगा दो ! क्या आप राम राम राम नहीं कर सकते हो ? क्या पसीना आता है ? ‘दिल में जाग्रत रहिए बंदे’ पता नहीं अचानक मौत कब आ जाय ? मरना पड़ेगा तो सावधान रहो ! भगवान् आपसे उतना ही चाहते है, आशा रखते है ; जीतना आप कर सको ! आप जितना कर सको उतनी ही आपकी जिम्मेवारी है ।
दि।१६/१०/१९९१, सायं ४.३० बजेके प्रवचनसे
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