।। श्रीहरिः ।।

प्रारब्ध और पुरुषार्थ


मनुष्यका निश्चय एक होना चाहिए और वह परमात्माकी तरफ ही हो सकता है , क्योंकि वह एक है । संसारमें तो कई तरहकी बातें होती है तो आदमी एक निश्चय नहीं कर सकता । मनुष्य शरीरका केवल एक ही प्रयोजन है, परमात्माकी प्राप्ति करना । यहाँ आक़र भोग और संग्रहमें लग जाते है, भूल करते है । यह प्रारब्धका विषय है । पारमार्थिक उन्नति ही पुरुषार्थकी बात है ।
कर्मके फल तीन प्रकारके होते है (१) इष्ट (२) अनिष्ट (३) मिश्रित । उसका विस्तारसे वर्णन साधक संजीवनी(गीतजीकी टीका)में १८ वें अध्यायके १२वे श्लोकमें किया है, ‘कर्मका रहस्य’ नामसे एक छोटी सी पुस्तिका भी है; उसका अध्ययन करना चाहिए । आजकल ज्यादा लोग भूले हुए है, जो परमात्मप्राप्तिमें सावधानीसे लगे है, वही सजग है । अतः ‘मेरेको तो परमात्मप्राप्ति करनी है’ ऐसा एक निश्चय करनेसे बड़ा लाभ होता है ।
भोग और ऐश्वर्यकी प्राप्ति पूर्वकर्मोंका फल है । मनुष्यको बड़ी शंका होती है कि हमारेको जो मिलता है वह अभी पुरुषार्थ करते है उससे मिलता है कि भाग्यमें जो लिखा है वह मिलता है ? अभी जो फल मिलता है उसमें भाग्य या उद्योगकी प्रधानता है ? यह उलझन बहुत रहती है । उसका खुलासा हरेक जगह, कथा, व्याख्यान, पुस्तकमें नहीं मिलता है ! मेरेको संतोंसे मिला है, बादमें पुस्तकमें भी दिखेगा वरना पढ़ लेनेपर भी समजमें नहीं आता है ।
हमारे पास दो उपाय है —(१) पूर्वके कर्मोंका फलका; भाग्यका और (२) अभीके कर्म करनेका; पुरुषार्थका । मतलब एक ‘करनेका’ और एक ‘होनेका’; दोनों ही कर्म है । अतः हमारे पास प्राप्तिके उपाय तो दो है और चीज हमें चार चाहिए । (१) धन (२) सुख-भोग (३) धर्म (४) मुक्ति-कल्याण । इस चारके अंतर्गत सभी चाहना आ जाती है । धन-संपत्ति और सुख-भोगमें तो प्रारब्धकी प्रधानता है और धर्मपालन और मुक्तिमें पुरुषार्थकी प्रधानता है ।
एक पुरुषार्थ है, एक प्रारब्ध है और एक संचित है । यह क्या है ? इस विषयमे ध्यानसे सुनें । जैसे हम रोजाना पैसे कमाते है वह तो पुरुषार्थ है और बेंक आदिमें जमा करवाते है, संग्रह करते है वह संचित है और उस संग्रहमेंसे खर्चके लिए निकाल लेते है वह प्रारब्ध है । धर्मका अनुष्ठान और मुक्तिमें पुरुषार्थ प्रधान है और उसमें हम स्वतन्त्र है और सुख-भोग और संग्रहमें प्रारब्धकी प्रधानता है, उसकी प्राप्तिमें पराधीनता है । इस वास्ते हरेक को कहा जाता है कि इतना धर्म, तीर्थ, व्रत, उपवास,स्वाध्याय करो, इसमें करनेकी आज्ञा आती है । परन्तु आप रोजाना १००, २०० रुपये पैदा करो, कमाओ; इतनेसे कम पैदा नहीं करेंगे ऐसा नियम नहीं है । इसमें हम स्वतंत्र नहीं है कि इतना पैसा तो पैदा कर ही लेंगे ! ऐसे ही भोगकी प्राप्तिमें भी नियम नहीं है कि हम अमुक भोग भोगेंगे ही ! हलवा, पूड़ी खाएँगे ही ! शब्द, स्पर्श, रूप, रस, गंध, मान,आदर आदिके भोगोंमें हमारी स्वतंत्रता नहीं है । इससे सिद्ध हुआ कि जिसमें हम स्वतंत्र है उसमें उद्योग करे । रुपये कमानेमें प्रारब्धके आधीन है; धर्मपालन, कल्याणमें पुरुषार्थकी प्रधानता है ।
इसको समझाने के लिए एक द्रष्टान्त कहता हूँ । एक वैद्यजीके पास एक मरीज आया कि मुझे आँखमें दर्द, जलन है और पेटमें भी तकलीफ है । तो उसको आंखमें डालनेके लिए दवाई दी और पेटके लिए मोटा चूर्ण दिया, जिसका कहाड़ा बनाकर पीना था । दुसरे मरीजको भी वैसी ही तकलीफ़ थी तो उसको भी वैसी ही दवाई, चूर्ण दिया । पहलेवालेने तो जैसे वैधने कहा वैसा ही किया, ठीक भी हो गया और दूसरेवालेने आँखकी दवाई तो पी गया और पेटके लिए जो चूर्ण दिया था उसमेंसे थोड़ा आँखमें डाल दिया तो दोनो ही बीमारी, दर्द बढ़ गया ! तो आँखकी बीमारी क्या है ? मैं कहाँसे आया हूँ ? कहाँ जाना है ? मैं कोन हूँ ? जड़-चेतन क्या है ? द्वैत-अद्वैत क्या है ? यह दिखता नहीं है, तो गए वैधके पास, वैध है हमारे भगवान् ! आँखकी बीमारीके लिए पुरुषार्थरूपी पुड़िया है कि सत्संग, स्वाध्याय, भजन करो । और पेटकी बीमारी है निर्वाह करना, उसके लिए प्रारब्ध है । ‘प्रारब्ध पहले रचा पीछे रचा शरीर, तुलसी चिंता क्यों करे भज ले श्रीरघुवीर’ । बच्चा पैदा होनेसे पहले माँके दूध पैदा होता है और गाढ़ा दूध निकाल देते है क्योंकि भारी होनेसे बच्चेको पचेगा नहीं, इससे सिद्ध होता है कि बच्चेके जन्मसे पहले दूध पैदा होता है । जन्म, आयु और भोग पहलेसे निश्चित होता है, उसके लिए चिंता नहीं करनी है । चिंता करनी हो तो परमात्मप्राप्तिके विषयमें करो । तो सत्संग, स्वाध्याय, व्रत, जप, ध्यान आदि आँखकी पुड़िया और निर्वाहके लिए ५-६ घंटे काम करो । पर पूरा समय घन-भोगमें लगा देते हो और ध्यान-भजनके लिए समय नहीं है ! तो आँखकी दवाई तो पी गए और पेटके लिए जो चूर्ण था वह आँखमें डाल दिया । अपने कल्याणमें जो पुरुषार्थ करना था, समय, बुद्धि लगानी थी सब कमानेमें, घर सजानेमें लगा दिया । सत्संग, भजन करनेका है, भाग्यका नहीं है । आजकल चीजोंकी आवश्यकता ज्यादा पैदा कर ली, चीजें महेंगी हो गई, खर्चा बढ़ा दिया । मकानकी सुंदरता, शरीरकी सुंदरता बढ़ाओ, हमारे हिंदुस्तानमें महान अनर्थ हो रहा है । स्त्रियोंकी सुंदरताकी प्रतियोगीतायें होने लगी है । वही रंगकी साड़ी,जूते, पर्स ! क्या दशा है ? आप माता-बहनोंकी क्या इज्जत कर रहे हो ? स्त्रियोंकों तितलिकी तरह बना रहे हो ! शरीरको सजाना, मकानको सजाना यह मूर्ति पूजा है, भगवानकी पूजा नहीं है । महान अनर्थ कर रहे हो, पाप कर रहे हो !!
नारायण ..... नारायण................ नारायण....................नारायण

दि। २५/०७/१९९५, प्रातः ८.३०बजेके प्रवचनसे

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