भगवत्प्राप्ति
क्रियासाध्य नहीं-१
एक विशेष बात ध्यान देनेकी है कि जिसको मुक्ति, कल्याण अथवा भगवत्प्राप्ति कहते है, वह स्वतःसिद्ध है, क्रियाके द्वारा सिद्ध होनेवाली चीज नहीं है । यह बहुत विलक्षण बात है ! आप कृपा करके इस बातकी तरफ ध्यान दें । संसारकी जितनी भी वस्तुएँ हैं, वे सब प्रकृतिका कार्य होनेसे उनमें हरदम परिवर्तन होता रहता है । क्रियाशील होनेसे उन वस्तुओंकी प्राप्ति भी कर्मोंके द्वारा होती है । अतः संसारकी वस्तुएँ क्रियासाध्य हैं । परन्तु परमात्मतत्त्व सदा ज्यों-का-त्यों रहता है, उसमें कभी कोई परिवर्तन नहीं होता । अतः परमात्मतत्त्व क्रियासाध्य नहीं है । सिद्धान्तकी एक बहुत बढ़िया और सूक्ष्म बात यह है कि परमात्मतत्त्व स्वतःसिद्ध है । वह क्रियाओंके द्वारा प्रापणीय नहीं है । यह बात विशेष ध्यान देनेकी है । आपका ध्यान आकृष्ट करनेके लिये कहता हूँ कि यह बात मेरेको बहुत वर्षोंके बाद सन्तोंसे मिली है । यह बात सर्वशास्त्रसम्मत भी है । अतः केवल इस बातकी तरफ ही आप ध्यान दें तो बहुत ही लाभकी बात है । अब इसका खुलासा कहता हूँ, आप ध्यान दें ।
हम यह मानते हैं कि परमात्मा सब समयमें हैं, सब जगहमें हैं, सभीके हैं और सबके हैं । अब इन चारों बातोंपर विचार करें । (१) परमात्मा सब समयमें हैं कि नहीं ? अगर इस समय नहीं हैं, तो परमात्मा सब समयमें हैं—यह कहना नहीं बनेगा । (२) परमात्मा सब जगह हैं तो यहाँ है कि नहीं ? अगर यहाँ नहीं हैं, तो परमात्मा सब जगह हैं—यह कहना नहीं बनेगा । (३) परमात्मा सभीमें हैं । वे जड़-चेतन, स्थावर-जंगम आदि सभीमें हैं । सजीवके दो भेद हैं—स्थावर और जंगम । वृक्ष आदि स्थावर हैं और मनुष्य, पशु-पक्षी आदि जंगम हैं । जड़-चेतनमें, स्थावर-जंगममें परमात्मा हैं । नीचे-से-नीचे समझे जानेवाले प्राणीमें तथा दुष्ट-से-दुष्ट आचरणवाले मनुष्यमें भी परमात्मा हैं । सन्त-महात्माओंमें भी परमात्मा हैं । शुद्ध-से-शुद्ध वस्तुमें तथा अपवित्र-से-अपवित्र वस्तुमें भी परमात्मा हैं । नरकोंमें भी परमात्मा परिपूर्ण हैं । जब वे सबमें हैं तो हमारेमें हैं कि नहीं ? अगर हमारेमें नहीं हैं, तो परमात्मा सबमें हैं—यह कहना नहीं बनेगा । (४) परमात्मा सबके हैं । यह नहीं कि वे साधुओंके हैं, गृहस्थोंके नहीं; भाइयोंके हैं, बहनोंके नहीं; ब्राह्मणोंके हैं, अन्त्यजोंके नहीं । ऐसा आप नहीं कह सकते है कि परमात्मा किसी व्यक्तिविशेषके हैं । परमात्मा दुष्ट-से-दुष्ट पुरुषके भी वैसे ही हैं, जैसे महात्मा-से-महात्मा पुरुषके हैं । परमात्मापर महात्मा-से-महात्माका जैसा हक लगता है, वैसा ही हक दुष्ट-से-दुष्टका भी लगता है । उनमें कभी किंचिन्मात्र भी पक्षपात नहीं है । उनमें पक्षपात हो ही नहीं सकता, असम्भव बात है । अतः परमात्मा सबके हैं, तो हमारे भी हैं । अगर वे हमारे नहीं है, तो परमात्मा सबके हैं —यह कहना नहीं बनेगा । अब सिद्ध क्या हुआ ? कि परमात्मा सब समयमें हैं तो अभी भी हैं, सब जगह हैं तो यहाँ भी हैं, सभीमें हैं तो मेरेमें भी हैं और सबके हैं तो मेरे भी हैं ।
उपर्युक्त चार बातोंकी तरफ ध्यान देनेसे एक बात सिद्ध होती है कि परमात्मा हमें नित्यप्राप्त हैं । हम भगवान् का भजन करते हैं, नाम-जप करते हैं, कीर्तन करते हैं, रामायण, भागवत आदि ग्रन्थ पढते हैं, सन्तोंकी वाणी पढ़ते हैं, तो यह भाव रहता है कि परमात्मा फिर मिलेंगे । अभी हम परमात्माकी प्राप्तिके योग्य नहीं हुए हैं, इसलिये परमात्मा अभी नहीं मिलेंगे, भविष्यमें मिलेंगे । यह धारणा साधकोंके लिये महान बाधक है । मनमें तो वे समझते हैं कि हम भगवान् की तरफ चल रहे हैं, पर वास्तवमें भगवान् से अलग होनेका उद्योग कर रहे हैं । यह चिन्तन कर रहें हैं अभी भगवान् नहीं मिलेंगे । अभी कैसे मिल जायँगे ? मैं योग्य नहीं हूँ, मैं पात्र भी नहीं हूँ । साधकके लिये यह धारणा महान पतन करनेवाली है । विचार करना चाहिये कि क्या हमारी अपात्रतासे भगवान् अटक सकते हैं ? क्या भगवान् इतने कमजोर हैं कि हम अयोग्य हैं, इसलिये वे हमें नहीं मिल सकते ? अगर ऐसी बात है तो फिर उनको दयालु कहना ही निरर्थक है । जब वे योग्यको मिलते हैं, अयोग्यको नहीं मिलते, तो फिर दयाका क्या लेना-देना ?
(शेष आगेके ब्लॉगमें)
—‘साधन-सुधा-सिन्धु’ पुस्तकसे