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2013-03-14T05:29:00Z
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(गत
ब्लॉगसे आगेका)
सांसारिक
पदार्थोंके पासमें
होनेसे जिसे अभिमान
होता है, वह हिंसा
करता है । ऐसे ही
जिसे गुणोंका
अभिमान है, वह भी
हिंसा करता है
। गुण तो आने-जानेवाले
हैं, उनको लेकर
अभिमान करता, तो
जिनके पास वे गुण
नहीं हैं, उनके
मनमें जलन पैदा
होती है; क्योंकि
वे किसीसे कम
तो हैं नहीं । सब-के-सब
परमात्माके अंश
हैं; अतः स्वरूपसे
समान हैं । आने-जानेवाले
पदार्थोंसे अपनेको
सुखी मानना भूल
है । जो अपनेको
बड़ा और दूसरेको
नीचा समझकर दूसरोंका
तिरस्कार करता
है, वह भी हिंसा
करता है । अपनेमें
दूसरोंकी अपेक्षा
विशेषताका अनुभव
करना भी भोग है,
और उससे दूसरोंकी
हिंसा होती है
। मान-बड़ाईका सुख
भोगनेवाला भी
हिंसा करता है;
क्योंकि वह अपनेको
मान-बड़ाईके योग्य
समझकर अभिमान
करता है । वह सोचता
है कि कहीं दूसरेकी
बड़ाई हो जायगी
तो मेरी बड़ाईमें
धब्बा लगेगा ।
ऐसे ही काम-धन्धा
न करनेवाला मनुष्य
आलस्यका सुख लेता
है तो दूसरे कहते
हैं कि हम तो मेहनत
करते हैं और यह
आरामसे बैठा माल
खाता है तो यह भी हिंसा
है । तो सांसारिक
सुखोंको भोगनेवाला
व्यक्ति खुद तो
दुःख पाता ही है,
दूसरोंको भी दुःखी
करता है ।
सभी भोग दुःखोंके
कारण है । सांसारिक
सुख पहले भी नहीं
थे और बादमें भी
नहीं रहेंगे ।
स्वयं अविनाशी
होते हुए भी ऐसे
नाशवान् सुखोंके
वशमें होना अपनी
हत्या करना ही
है । सुखका
भोगी व्यक्ति
कभी पापों और दुःखोंसे
बच ही नहीं सकता
। इसलिये जो अपना
कल्याण चाहता
है, उसके लिये आवश्यक
है कि वह किसी वस्तु,
परिस्थिति, व्यक्ति
आदिके कारण प्रसन्नता
या सुखका अनुभव
न करे । इनसे प्रसन्न
होनेवाला व्यक्ति
मुक्त नहीं होता
। कर्मयोगमें
यही खास बात है
। कर्मयोगी सभी
कर्तव्य-कर्म
करता है, पर संयोगजन्य
सुखका भोग नहीं
करता । किसी बातसे
वह प्रसन्नता
नहीं खरीदता ।
त्यागसे
सुख होता है । जो
पुरुष विरक्त,
त्यागी होता है,
उसे देखकर दूसरोंको
सुख होता है । अतः
जो संयोगजन्य
सुखोंका भोगी
नहीं है, ऐसे त्यागी
पुरुष दूसरोंको
सुख पहुँचाता
है और संसारका
बड़ा भारी उपकार
करता है । त्यागी
महापुरुष संसारका
जितना उपकार
करता है, उतना उपकार
कोई कर सकता ही
नहीं । उसे देखनेसे,
उसकी बातें सुननेसे
भी दूसरोंको सुख
मिलता है । ऐसा
महापुरुष यदि
एकान्तमें बैठा
हो, तो भी संसारके
दुःखोंका नाश
करता है । उसका
भाव संसारको सुख
पहुँचानेवाला
होता है‒
सर्वे भवन्तु सुखिनः सर्वे सन्तु निरामयाः
।
सर्वे
भद्राणि पश्यन्तु
मा कश्चिद् दुःखभाग्भवेत्
॥
अपने प्रति
वैर रखनेवालोंको
भी वह सुख पहुँचाता
है । जिसके
हृदयमें अभिमान
और स्वार्थ नहीं
है, जिसका भाव दूसरोंको
सुख पहुँचानेका
है, उसकी भगवान्की
उस शक्तिके साथ
एकता हो जाती है,
जो संसारमात्रका
पालन कर रही है
। इसलिये भगवान्का
किया हुआ उपकार
उसीका है । और उसका
किया हुआ उपकार
भगवान्का है
। इसलिये जो
सुखकी इच्छा और
सुखका भोग करता
है, वह अपना और संसारका
नुकसान करता है
। और जो सांसारिक
सुखोंका त्यागी
तथा भगवान्का
अनुरागी है, वह
संसारमात्रका
उपकार करता है
।
नारायण ! नारायण
!! नारायण
!!!
‒ ‘तात्त्विक
प्रवचन’ पुस्तकसे
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