श्रोता‒जब भोग
पदार्थ
सामने आते
हैं, तब न जाने
क्यों हम
विचलित हो
जाते हैं; अतः
उस समयमें हम
क्या करें ?
स्वामीजी‒जिसने
लाठी चलाना
पहले ही सीख लिया
है, वह
शत्रुके
सामने आनेपर
उससे मुकाबला
कर सकता है ।
परन्तु
शत्रु पहले
ही सामने आ
जाय और लाठी
चलाना सीखा
नहीं, वहाँ तो
लाठी खानी ही
पड़ेगी !
सत्संगकी
बातोंको तो
आप जानते हैं,
पर जब भोग
सामने आते
हैं, तब उन
बातोंको भूल
जाते हैं, वे
बातें काम
नहीं आतीं ।
तब लगि
सब ही मित्र
है, जब लगि पर्यो
न काम ।
हेम अगन शुद्ध होत है, पीतल होवे स्याम ॥
जबतक
काम नहीं
पड़ता, तबतक सब
ही मित्र हैं ।
काम पड़नेसे
ही पता चलता
है कि कौन मित्र
है और कौन
मित्र नहीं
है । सोना भी
पीला दीखता
है और पीतल भी
पीला दीखता है,
परन्तु
आगमें
रखनेपर सोना
तो चमकता है
और पीतल काला
हो जाता है ।
एक
सीखी हुई बात
होती है और एक
जानी हुई बात
होती है । जानी
हुई बात वास्तविक
होती है, जो
कभी इधर-उधर
नहीं होती ।
सीखी हुई बात
बुद्धितक ही
रहती है,
स्वयंतक नहीं
पहुँचती ।
परन्तु जानी
हुई बात
स्वयंतक पहुँचती
है । जबतक कोई
बात स्वयंतक
नहीं
पहुँचती,
तबतक वह व्यवहारमें
जैसी आनी
चाहिये, वैसी
नहीं आती ।
जिसका
उद्देश्य
परमात्माकी
प्राप्ति है,
उसको सीखी
हुई
बातोंमें
सन्तोष नहीं
होता ।
सन्तोष न
होनेसे उसके
द्वारा खोज
होती है कि वास्तवमें
क्या बात है ?
खोज
करते-करते
उसको
तत्त्वका
अनुभव हो
जाता है ।
एक
सत्संग होता
है और एक
कथा-वार्ता,
पुस्तकोंका
विवेचन आदि
होता है । कथा,
व्याख्या
आदिकी बातें
तो बहुत जगह
मिलती हैं, पर
अनुभवी,
भगवत्प्राप्त
महापुरुषोंका
सत्संग कम
जगह मिलता है ।
अनुभवी
महापुरुष
पहले (सत्य,
त्रेता,
द्वापरमें)
भी कम थे, आज तो
और भी कम हैं !
आज तो
विद्यार्थी
भी ठीक तरहसे
शास्त्रका
अध्ययन नहीं
करते । कोरी
परीक्षा
देकर पास हो
जाते हैं ।
पूछो तो बता
नहीं सकते । जो
पढ़ा है, वह भी
नहीं बता
सकते फिर
वास्तविक ज्ञान
तो बहुत दूर
रहा ! हमारी
प्रार्थना
है कि आप
वास्तविक
तत्त्वको
समझें , कोरी
पढ़ाई न करें ।
जब भोग
सामने आते
हैं, तब
सुनी-सुनायी
बातें रद्दी
हो जाती हैं ।
एक कहानी है ।
एक पण्डित थे ।
वे रोज
रात्रिमें
कथा किया
करते थे ।
उन्होंने एक
बिल्लीको पालकर
सिखा रखा था ।
वे बिल्लीको
बैठाकर उसके
सिर थोड़ी
मिट्टी रखकर
दीपक रख देते
और उस दीपकके
प्रकाशमें
कथा बाँचते ।
कोई कहता कि
हमारा मन ठीक
नहीं है तो वे
कहते‒ ‘अरे ! यह
बिल्ली ही
ठीक है, एकदम
चुपचाप बैठी
रहती है,
तुम्हारी
क्या बात है ?’
एक आदमीने
विचार किया
कि देखें,
बिल्ली कैसे चुपचाप
बैठती है । वह
दूसरे दिन
अपने साथ एक चूहा
ले गया । जब
पण्डितजीकी
कथा चल रही थी,
उस समय उसने
चूहेको
बिल्लीके
सामने छोड़
दिया ।
चूहेपर
दृष्टि पड़ते
ही बिल्ली
उसपर झपट पड़ी
और दीपक गिर
गया ! यही दशा
आदमियोंकी
होती है ।
बातें सुनते
समय तो चुपचाप
बैठे रहते
हैं, पर जब भोग-पदार्थ
सामने आ जायँ तो
फिर वशकी बात नहीं
रहती । कारण
कि भीतरमें
रुपयों
आदिका
आकर्षण है,
इसलिये
रुपये सामने
आनेपर
मुश्किल हो
जाती है । भोगोंका
यह आकर्षण
पहले नहीं था‒यह
बात नहीं है ।
आकर्षण तो
पहलेसे ही था, पर
वह दबा हुआ था ।
ताँबेके
कड़ेके ऊपर
सोनेकी
पालिश कर दी
जाय तो वह कड़ा
सोनेकी तरह
दीखता है ।
इसी तरह सीखी
हुई बातें
पालिशकी तरह
होती हैं ।
परन्तु जानी
हुई, अनुभव की
हुई बात ठोस
होती है । जिसके
भीतरमें
स्वयंका
अनुभव होता
है, उसके सामने
चाहे कुछ भी आ
जाय, वह
विचलित नहीं
होता । वह हर
परिस्थितिमें
ज्यों-का-त्यों
रहता है ।
(शेष
आगेके
ब्लॉगमें)
‒ ‘तात्त्विक
प्रवचन’
पुस्तकसे
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