परमात्माकी
प्राप्तिको लोग
कठिन मानते हैं;
परन्तु वास्तवमें
परमात्माकी प्राप्ति
कठिन नहीं है, प्रत्युत
भोगासक्तिका
त्याग कठिन है
। भगवान्ने
कहा है‒
भोगेश्वर्यप्रसक्तानां तयापहृतचेतसाम्
।
व्यवसायात्मिका
बुद्धिः समाधौ
न विधीयते ॥
(गीता
२/४४)
जिनकी
भोग और संग्रहमें
आसक्ति है, वे परमात्माको
प्राप्त करनेका
निश्चय भी नहीं
कर सकते, परमात्माको
प्राप्त करना
तो दूर रहा ! हमें परमात्मतत्त्वको
ही प्राप्त करना
है, अपना कल्याण
ही करना है‒यह
बात उनमें दृढ़
नहीं रहती । अतः
जबतक भीतरमें
भोगोंका आकर्षण,
महत्त्व बना हुआ
है, तबतक बातें
भले ही सीख जायँ,
पर परमात्मप्राप्तिका
निश्चय नहीं कर
सकते । जब निश्चय
ही पक्का नहीं
रहेगा, तो फिर परमात्मप्राप्ति
होगी ही कैसे ?
अगर आप जड़,
असत्, क्षणभंगुर
पदार्थोंसे ऊँचे
उठ जाओ तो परमात्मतत्त्वकी
प्राप्ति कठिन
नहीं है । जो स्वतःसिद्ध
है, उसको प्राप्त
करनेमें क्या
कठिनता है ? कठिनता
यही है कि जो नहीं
है, उसमें आकर्षण
हो गया । ‘है’ की प्राप्ति
कठिन नहीं है, ‘नहीं’
का त्याग करना
कठिन है । जब ‘नहीं’
का भी त्याग नहीं
कर सकते, तो फिर
और क्या त्याग
करोगे ? आश्चर्यकी
बात है कि आप जाने
हुए असत्का त्याग
नहीं कर सकते ! जिनको
जानते हो कि ये
असत् हैं, नाशवान्
हैं, सदा साथ रहनेवाले
नहीं हैं, आने-जानेवाले
हैं, उनका भी त्याग
नहीं करते‒यह
बहुत बड़ी गलती
है ।
असत्का
आकर्षण कैसे छूटे
? इसके लिये कर्मयोगका
पालन करें । गीतामें
भगवान्ने कर्मयोगकी
बात विशेषतासे
कही है और उसकी
महिमा गायी है‒‘कर्मयोगो विशिष्यते’
(५/२) । कर्मयोगकी
बात गीतामें जितनी
स्पष्ट मिलती
है, उतनी अन्य ग्रन्थोंमें
नहीं मिलती । कर्मयोगका
तात्पर्य है‒दूसरोंको
सुख देना और बदलेमें
कुछ भी न चाहना
। माँ-बापको
सुख देना है । स्त्री,
पुत्र, भाई-भतीजेको
भी सुख देना
है । पड़ोसियोंको
भी सुख देना है
। सबको सुख देना
है । इसको काममें
लाओ तो असत्का
आकर्षण छूट जायगा
।
किसी तरहसे
दूसरोंको सुख
मिल जाय, आराम मिल
जाय‒ऐसा जो भाव
है, यह बहुत दामी
चीज है, मामूली
नहीं है । अगर
आप चाहते हो कि
विषय सामने आनेपर
हम विचलित न हों,
तो इस सिद्धान्तको
पकड़ लो कि दूसरोंको
सुख कैसे हो ? दूसरोंको
आराम कैसे हो ?
वस्तु मेरे पास
हरदम नहीं रहेगी,
अतः दूसरेके काम
आ जाय तो अच्छा
है‒ऐसा भाव होनेसे
सबके हितमें रति
हो जायगी । जब दूसरोंके
हितमें आपकी रति,
प्रीति हो जायगी,
तब भोगपदार्थ
सामने आनेपर भी
उनका त्याग करना
सुगम हो जायगा
। परन्तु ‘मेरेको
सुख कैसे हो ? मेरेको
सम्मान कैसे मिले
? मेरी बड़ाई कैसे
हो ? मेरी बात कैसे
रहे ? मेरेको आराम
कैसे मिले ?’‒यह
भाव रहेगा तो त्रिकालमें
भी कल्याण नहीं
होगा, क्योंकि
ऐसा भाव रखना पशुता
है, मनुष्यता नहीं
है ।
दूसरेके हितका
भाव होनेसे आपकी
सुख भोगनेकी इच्छाका
नाश हो जायगा ।
नारायण
! नारायण
!! नारायण
!!!
‒ ‘तात्त्विक
प्रवचन’ पुस्तकसे
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