(गत बोगसे
आगेका)
बहुत
वर्षोंतक
मेरेमें यह
जाननेकी
लालसा रही कि
गडबड़ी कहाँ
है ? बाधा किस
जगह लग रही है ?
न चाहते हुए
भी मनमें
मान-बड़ाईकी,
आदर-सत्कारकी,
पदार्थोंकी
इच्छा हो
जाती है, तो यह
कहाँ टिकी
हुई है ? यह
छूटती क्यों
नहीं ? वर्षोंके
बाद इसकी जड़
मिली, वह है‒सुखकी
लोलुपता ।
हमें यह बात
वर्षोंके
बाद मिली,
आपको सीधी बता
दी । आपको
सुगमतासे
मिल गयी,
इसलिये आप
इसका आदर नहीं
करते । यदि
कठिनतासे
मिलती तो आप
आदर करते ।
आप
पहाड़ोंमें
भटकते,
बद्रीनारायण
जाते, खूब तलाश
करते और इस
तरह
भटकते-भटकते
कोई सन्त मिल जाता
तथा वह यह बात
कहता तो आप
इसका आदर
करते । अब
रुपये कमाते
हो,
कुटुम्बके
साथ घरोंमें
मौजसे बैठे
हो और
सत्संगकी
बातें मिल
जाती हैं तो
आप उनका
महत्त्व
नहीं मानते ।
उलटे ऐसा
मानते हो कि
स्वामीजी तो
यों ही कहते
हैं, ये
दुकानपर
बैठें तो पता
लगे ! इस तरह आप
अपनी ही
बातको प्रबल
करते हो ।
सिद्ध क्या
हुआ ? कि हमारी
बात सच्ची है,
इनकी (स्वामीजीकी)
बात कच्ची है ।
आपने विजय तो कर
ली, पर फायदा
क्या हुआ ? आप
जीत गये, हम हार
गये, पर जीतमें
आपका ही
नुकसान ही
हुआ ।
एक धनी आदमीने कहा कि स्वामीजी रुपयोंके तत्त्वको जानते नहीं तो मैंने कहा कि देखो, मैंने रुपये रखे भी हैं और उनका त्याग भी किया है, इसलिये दोनोंको जानता हूँ । परन्तु आपने रुपये रखे हैं, उनका त्याग नहीं किया है, इसलिये आप एक ही बातको जानते हो, दोनोंको नहीं जानते । कोई तत्त्व नहीं है रुपयोंमें । आप लोभसे दबे हुए हो, आपने रुपयोंका महत्त्व स्वीकार कर लिया है, फिर कहते हो कि हम जानते हैं । धूल जानते हो आप ! जानते हो ही नहीं । परमात्माको जाननेके लिये परमात्माके साथ अभिन्न होना पड़ता है और संसारको जाननेके लिये संसारसे अलग होना पड़ता है । परमात्मासे अलग रहकर परमात्माको नहीं जान सकते और संसारसे मिले रहकर संसारको नहीं जान सकते‒यह सिद्धान्त है । ऐसा सिद्धान्त क्यों है ? कि वास्तवमें आप परमात्माके साथ अभिन्न हो और संसारसे अलग हो । परन्तु आपने अपनेको परमात्मासे अलग और संसारसे अभिन्न मान लिया, अब कैसे जानोगे ? जो बीड़ी, सिगरेट आदि पीता है, वह बीड़ी आदिको जान नहीं सकता । जो इनको छोड़ देता है, उसको इनका ठीक-ठाक ज्ञान हो जाता है । एक बार मैंने कहा कि चाय छोड़ दो । बहुतोंने चाय छोड़ दी । पासमें ही एक वकील बैठे थे, वे कुछ भी बोले नहीं । तीन-चार दिन बादमें वे मेरे पास आये और बोले कि चाय तो मैंने भी उसी दिन छोड़ दी थी, पर सभामें मेरी बोलनेकी हिम्मत नहीं हुई । चाय छोड़नेके बाद यह बात मेरी समझमें आयी कि जिस प्यालेसे गोमांसभक्षी चाय पीता है, छूतकी महान् बीमारीवाला चाय पीता है, उसी प्यालेसे हम चाय पीते हैं ! इससे सिद्ध हुआ कि संसारको छोड़े बिना उसके तत्वको नहीं जान सकते । सत्की प्रप्तिकी लालसा करो तो असत् छूट जायगा और असत्का त्याग कर तो सत्की प्राप्ति हो जायगी । दोनोंमेंसे कोई एक करो तो दोनों हो जायँगे । असत्का संग करते हुए, आसक्ति रखते हुए असत्को नहीं जान सकते और सत्से दूर रहकर बड़ी-बड़ी पण्डिताईकी बातें बघार लो, षट्शास्त्री पण्डित बन जाओ, तो भी सत्को नहीं जान सकते । संसारकी आसक्ति दूर करनेका सुगम उपाय है‒दूसरोंको सुख देना । माता, पिता, स्त्री, पुत्र, भाई, भौजाई आदि सबको सुख दो, पर उनसे सुख मत लो तो सुगमतासे आसक्ति छूट जायगी । नारायण ! नारायण !! नारायण !!!
‒
‘स्वाधीन
कैसे बनें ?’
पुस्तकसे
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