(गत
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प्रश्न‒प्राणीसेवा
ही
प्रभु-सेवा
है, सेवा और
पूजामें अन्तर
क्या है ?
उत्तर‒हाँ
जी । काम कर
देना सेवा है ।
पूजन होता है
चन्दनसे,
अगरबत्तीसे,
दीपक दिखानेसे,
आरती करनेसे,
फूल चढ़ानेसे ।
यह पूजा होती
है । इसको भी
सेवा कह देते
हैं, पर पूजा
है यह । तो
पूजा
करनेमें
जिसका हम
पूजन करते
हैं, उसको ऐसा
कोई लाभ नहीं होता
। पुष्प चढ़ा
दिया तो क्या
हुआ, चन्दन
चढ़ा दिया तो
क्या हुआ ?
धूप-दीप कर
दिया तो क्या
मिल गया उसको ?
उसको सुख
ज्यादा होता
है सेवा
करनेसे ।
पग-चम्पी कर
दी, स्नान करा
दिया, कपड़े धो
दिये । ऐसे यदि वह
उनकी सेवा
करे तो सुख
ज्यादा होता
है, पर सेवा
बुद्धिसे भी
विशेष अगर
पूजा बुद्धिसे
करता है तो
स्वयं गद्गद
हो जाता है ।
मस्त हो जाता
है वह कहीं
सेवाका काम
मिले तो ! सेवामें
पूजा-बुद्धि
हो जाती है तो
निहाल हो जाता
है । चरण-चम्पी
करता है एक तो और एक
चरण छूता है ।
चरण छूनेमें,
जिसके चरण
छूता है, उसको
कुछ नहीं
मिलता ।
स्वयं
अभिमान भले
ही कर ले । और
चरण-चम्पी
करता है तो
थकावट दूर
होती है ।
भाव चरण
छूनेका है और
पूजा-बुद्धि
है तो चरण छूनेमात्रसे
जैसे
बिजलीका
करंट आता है,
ऐसे ही उसके
आनन्दका एक करंट
आता है । ऐसे
चरण-चम्पी
करना सेवा है
और चरण छूना
पूजा है । यह
पूजाका और
सेवाका भेद
है । जितना
अपने
अभिमानका
त्याग होता
है, उसको सुख
कैसे पहुँचे ?
उसको आराम
कैसे पहुँचे ?
यह सेवाभाव
होता है । वह
पूजनीय,
आदरणीय है; वह
हमारा भोजन
भी स्वीकार
कर ले, चन्दन
भी स्वीकार
कर ले, हमारा
नमस्कार भी
स्वीकार कर
ले तो मैं
निहाल हो
जाऊँ ! यह
पूजाका भाव
है ।
जहाँ
पूज्यभाव
होता है, वहाँ
भारी कैसे
लगे ? वो तो
त्याग करता
रहता है, हरदम
ही विचार
करता रहता है,
किस तरहसे
मेरेको सेवा
मिल जाय ।
सेवा मिल जाय
तो अपना
अहोभाग्य
समझता है कि बस
निहाल हो गया
आज तो ! और ऐसा
मालूम पड़ता
है कि इनकी
कृपासे ही यह
हो रहा है ।
मेरेमें यह
भाव है न, यह
इनकी कृपा है ।
काम भी इनकी
कृपासे होता
है । वह तो
जीवन्मुक्त
हो गया
महाराज ! इतना
मस्त हो गया । उसकी
तो सेवा-पूजा
देखकर दूसरे
आदमियोंका
कल्याण हो
जाय । अगर उसका भाव
यह है तो ऐसी
बात है और
भारी लगता है
तो आलस्य है,
प्रमाद है,
अभिमान आदि
दोष है ।
यह बात है
भैया ! जितना
ही दुःख होता
है, आनन्द नहीं
आता है, उसमें
अपने दोष है
भीतर । अपने
दोष न रहनेसे
बहुत ही मौज
होती है ।
जितना
निर्दोष
जीवन है, उतना
उसके आनन्द
रहता है ।
इस बातको
समझते नहीं,
इस वास्ते
लोग चोरी करते
हैं, चालाकी
कर लेते हैं, ठग
लेते हैं,
उससे खुदको
दुःख होगा,
शान्ति नहीं
रह सकती, उससे
प्रसन्नता
नहीं रह सकती । परन्तु
पदार्थोंमें
ज्यादा
आसक्ति है,
पदार्थोंको
मूल्यवान
समझता है; इस
वास्ते
झूठ-कपट कर,
धोखा दे राजी
होता है । यह
महान् पतनका
रास्ता है । बहुत नुकसान
कर लिया अपना !
और जितना
निर्दोष
जीवन होता है,
अपना शुद्ध जीवन
होता है;
आलस्य,
प्रमाद, झूठ,
धोखेबाजी,
लोभ, क्रोध,
कामना कुछ
नहीं होती,
उतना
अन्तःकरण निर्मल
होता है,
हल्का होता
है, मस्ती
रहती है,
आनन्द हरदम
रहता है‒
कंचन
खान खुली घट
माहीं ।
रामदास के टोटो नाहीं ॥
भीतरसे
आनन्द उमड़ता
है । जैसे शीत-ज्वर
चढ़े तो
भीतरसे ही
ठण्ड लगती है ।
ऐसे
भीतरसे
आनन्द उठता
है उसके, बाह्य-पदार्थोंसे
सुख लेनेकी
इच्छा नहीं
होती ।
(शेष
आगेके
ब्लॉगमें)
‒ ‘भगवत्प्राप्ति
सहज है’
पुस्तकसे
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