(गत
ब्लॉगसे
आगेका)
भोगैश्वर्यप्रसक्तानां
तयापहृतचेतसाम्
।
व्यवसायात्मिका
बुद्धिः
समाधौ न
विधीयते ॥
(गीता २/४४)
भोग और
ऐश्वर्यमें
जिसकी
आसक्ति है । भोग
भोगना और
पदार्थोंका
संग्रह करना ‒दो
ही बात बतायी ।
‘यदा हि
नेन्द्रियार्थेषु
न कर्मस्वनुषज्जते’ तो
क्रियाओंमें
और
पदार्थोंमें
नहीं फँसना ।
भोग जितना
होता है, वह
क्रियाजन्य
होता है । भोग
होता है,
क्रिया होती
है उसमें क्रिया-जन्य
सुख है और
संग्रह है‒वह
पदार्थजन्य ।
पदार्थोंका
संग्रह कर लूँ
। इस वास्ते भगवान्ने
कहा‒‘पत्रं
पुष्पं फलं
तोयम्’ ये
वस्तु अर्पण
कर दो । और अगाड़ी
‘यत्करोषि
यदश्नासि
यज्जुहोषि
ददासि यत्’ ।
क्रिया
अर्पण कर दो ।
तो ‘शुभाशुभफलैरेवं
मोक्ष्यसे
कर्मबन्धनैः’,
दोनों
बन्धनोंसे
छूट जायगा । क्रिया और
पदार्थ‒ये
दो रूप ही हैं
प्रकृतिके ।
प्रकृतिसे
सम्बन्ध-विच्छेद
हो जायगा ।
क्रिया और
पदार्थोंके
वशमें रहेगा,
वो
प्रकृतिके
वशमें रहेगा,
जन्मेगा और
मरेगा । ‘कारणं
गुणसंगोऽस्य
सदसद्यो-निजन्मसु’
(गीता १३/२१) ।
गुण सात्त्विक,
राजस् और
तामस होते
हैं । पदार्थ
भी
सात्त्विक,
राजस् और
तामस होते
हैं ।
जो
पदार्थ और
क्रियाओंमें
आसक्त है, वो
फँस जायगा ।
तो इसमें
न फँसे‒इसका
उपाय है
आज्ञापालन । ‘आग्या
सम न सुसाहिब
सेवा’ आज्ञापालनके
समान कोई
सेवा है ही
नहीं ।
कृत्यकृत्य
हैं अपने ।
कुछ करना
नहीं, कुछ
पाना नहीं,
कुछ लेना
नहीं, कुछ
सम्बन्ध ही
नहीं अपने । लाठी
है उसे जँचे
वैसे चला दो ।
मालाको
घुमाओ, वैसे
घुमा दो ।
माला, लाठी
कुछ कहती
नहीं कि यूँ
घूमाओ, यूँ करो
। तुम्हारी
मर्जी है,
जैसे करो ।
ऐसे बड़ा
आनन्द है‒शिष्यके
लिये,
पुत्रके
लिये,
स्त्रीके
लिये, नौकरके
लिये, प्रजाके
लिये । बहुत
आनन्द है !
अपना कुछ है
ही नहीं ।
मालिक कहे, वैसे
कर दिया ।
हरदम मस्त
रहे, दुःख और
सन्ताप कुछ
है ही नहीं । न
अपनी कोई चीज
है, न कोई
क्रिया है, न
अपने कुछ लेना
है, न कुछ करना
है । शास्त्रोंने
पतिव्रताकी
बड़ी महिमा गायी
है ।
पतिव्रताकी
महिमा क्यों
है ?
पति कहे
ज्यों करे,
उसकी
राजीमें
राजी रहे ।
अपना कुछ
नहीं ।
अपने-आप भी
अपनी नहीं ।
वो तो पतिकी
है बस, उसके हाथका
खिलौना है ।
खिलाओ, पिलाओ,
मर्जी आवे
ज्यों चलाओ ।
ऐसे ही पुत्र
होता है । पुत्रका,
शिष्यका,
पत्नीका
बहुत जल्दी
होता है
कल्याण । अपनी
हेकड़ी छोड़ी
कि हुआ
कल्याण । अपनेपर काम आ
जाय तो विचार
करना पड़ता है
कि यह करें कि
नहीं करे, यह
ठीक है कि
बेठीक है । पर
उन्होंने कह
दिया, अपने कर
दिया । क्यों
कर दिया कि
उन्होंने कह
दिया इस
वास्ते कर
दिया । अपने
क्या मतलब ?
बोलो, इसमें
शंका क्या है ?
अरे ! अभिमान
भरा है
भीतरमें भाई !
अभिमान भरा
है अभिमान ! अभिमान,
आलस्य,
प्रमाद‒ऐसी
वृत्तियों भरी
हैं । तामसी
वृत्तियों
कम होते ही
सुगमतासे
कल्याण हो
जाता है और
ज्यादा होती
है तो देरी
लगती है ।
शास्त्रविहित
ही करना है,
निषिद्ध
थोड़े ही करना
है ।
(शेष
आगेके
ब्लॉगमें)
‒ ‘भगवत्प्राप्ति
सहज है’
पुस्तकसे
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