संसारसे
मिली हुई
वस्तु केवल
संसारकी
सेवा करनेके
लिये है और
किसी कामकी
नहीं ।
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कोई वस्तु
हमें अच्छी
लगती है तो वह
भोगनेके लिये
नहीं है,
प्रत्युत
सेवा करनेके
लिये है ।
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मनुष्यको
वह काम करना
चाहिये,
जिससे उसका
भी हित हो और
दुनियाका भी
हित हो, अभी भी
हित हो और
परिणाममें
भी हित हो ।
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शरीरकी
सेवा करोगे
तो संसारके
साथ सम्बन्ध जुड़
जायगा और (भगवान्के
लिये)
संसारकी
सेवा करोगे
तो भगवान्के
साथ सम्बन्ध
जुड़ जायगा ।
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जिसके
हृदयमें
सबके हितका
भाव रहता है,
वह भगवान्के
हृदयमें
स्थान पाता
है ।
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परमार्थ
नहीं बिगड़ा
है, प्रत्युत
व्यवहार बिगड़ा
है; अतः
व्यवहारको
ठीक करना है ।
व्यवहार ठीक
होगा‒स्वार्थ
और अभिमानका
त्याग करके
दूसरोंकी
सेवा करनेसे ।
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दूसरोंके
हितका भाव
रखनेवाला
जहाँ भी
रहेगा, वहीं भगवान्को
प्राप्त कर
लेगा ।
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भगवान्के
सम्मुख
होनेके लिये
संसारसे
विमुख होना है
और संसारसे
विमुख
होनेके लिये
निष्कामभावसे
दूसरोंकी
सेवा करनी है ।
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सेवाके
लिये
वस्तुकी
कामना करना
गलती है । जो
वस्तु मिली
हुई है, उसीसे
सेवा करनेका
अधिकार है ।
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संसारमें
दूसरोंके
लिये जैसा
करोगे,
परिणाममें
वैसा ही अपने
लिये हो
जायगा ।
इसलिये
दूसरोंके
लिये सदा
अच्छा ही करो ।
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जो
अपने
स्वार्थ और
अभिमानका
त्याग करके
केवल
दूसरोंके
हितमें लगा
है, उसका जीना
ही
वास्तवमें
जीना है ।
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जो
सेवा लेना
चाहते हैं,
उनके लिये तो
वर्तमान समय
बहुत खराब है,
पर जो सेवा
करना चाहते
हैं, उनके
लिये
वर्तमान समय
बहुत बढ़िया
है ।
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हमारी
किसी भी
क्रियासे
किसीको
किंचिन्मात्र
भी दुःख न हो‒यह
भाव ‘सेवा’ है ।
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निस्वार्थभावसे
दूसरोंकी सेवा
करनेसे
व्यवहार भी
बढ़िया होता
है और ममता भी
टूट जाती है ।
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घरवालोंकी
सेवा करनेसे
मोह होता ही
नहीं । मोह
होता है
कुछ-न-कुछ लेनेकी
इच्छासे ।
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भगवान्को
प्राप्त
करके मनुष्य
संसारका
जितना उपकार
कर सकता है,
उतना किसी
दान-पुण्यसे
नहीं कर सकता ।
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जो
हमसे द्वेष
रखता है, उसकी
सेवा करनेसे
अधिक लाभ
होता है;
क्योंकि
वहाँ सेवाका
सुखभोग नहीं
होता ।
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कभी
सेवाका मौका
मिल जाय तो
आनन्द मनाना
चाहिये कि
भाग्य खुल
गया !
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सम्पूर्ण
प्राणियोंके
हितसे अलग
अपना हित माननेसे
अहम् बना
रहता है, जो
साधकके लिये
आगे चलकर बाधक
होता है । अतः
साधकको
प्रत्येक
क्रिया
संसारके
हितके लिये
ही करनी
चाहिये ।
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नारायण !
नारायण !!
नारायण !!!
‒
‘अमृत-बिन्दु’
पुस्तकसे
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