(गत
ब्लॉगसे
आगेका)
माधुर्य-रतिके
दो भेद हैं‒स्वकीया
और परकीया । ‘स्वकीया
माधुर्य-रति’
में
पति-पत्नीके
सम्बन्धका
भाव रहता है ।
पतिव्रता
स्त्री अपने
माता, पिता,
भाई, कुल आदि
सबका त्याग
करके
अपने-आपको
पतिकी
सेवामें अर्पित
कर देती है ।
इतना ही नहीं,
वह अपने
गोत्रका भी
त्याग करके पतिके
गोत्रकी बन
जाती है* ।
अपना तन, मन, धन,
बल, बुद्धि
आदि सब कुछ
पतिके अर्पण
करके सर्वथा
पतिके परायण
हो जाती है । उसमें
दास्य, सख्य,
वात्सल्य और
माधुर्य‒सभी
भाव
विद्यमान
रहते हैं । वह दासीकी
तरह पतिकी
सेवा करती है,
मित्रकी तरह
पतिको उचित
सलाह देती है
और माताकी
तरह भोजन,
वस्त्र
आदिसे पतिका
पालन करती है
तथा उसके
सुख-आरामका
खयाल रखती है† ।
‘परकीया
माधुर्य-रति’
में अपनी
पत्नीसे
भिन्न
स्त्री (परनारी)
के
सम्बन्धका
और अपने
पतिसे भिन्न
पुरुष (परपुरुष
या उपपति) के
सम्बन्धका
भाव रहता है ।
यद्यपि लौकिक
दृष्टिसे यह
सम्बन्ध
व्यभिचार
होनेसे महान्
पतन
करनेवाला है,
तथापि
पारमार्थिक
दृष्टिसे इस
सम्बन्धका
भाव बहुत
उन्नति
करनेवाला है ।
यद्यपि
पत्नी अपने
पतिकी सेवा
करती है,
तथापि वह
अधिकारपूर्वक
पतिसे यह आशा
भी रखती है कि
वह रोटी, कपड़ा,
मकान आदि
जीवन-निर्वाहकी
वस्तुओंका
प्रबन्ध करे
और
बाल-बच्चोंके
पालन-पोषण,
विद्याध्ययन,
विवाह आदिकी
व्यवस्था
करे । परन्तु परकीया-भावमें
अपने इष्टको
सुख
पहुँचानेके सिवाय
कोई भी कामना
या स्वार्थ
नहीं रहता ।
स्वकीया-भावकी
अपेक्षा
परकीया-भावमें
अपने
प्रेमास्पदका
चिन्तन भी
अधिक होता है
और उससे
मिलनेकी
इच्छा भी
तीव्र होती
है ।
स्वकीया-भावमें
तो हरदम
साथमें
रहनेसे प्रेमास्पदके
आचरणोंको
लेकर उसमें
दोषदृष्टि भी
हो सकती है; परन्तु
परकीया-भावमें
प्रेमास्पदमें
दोषदृष्टि
होती ही नहीं । यद्यपि
लौकिक परकीया-भावमें
अपने सुखकी
इच्छा भी
रहती है,
तथापि पारमार्थिक
परकीया-भावमें
भक्तके भीतर
अपने सुखकी
किंचिन्मात्र
भी इच्छा
नहीं रहती । उसमें
केवल एक ही
लगन रहती है
कि
प्रेमास्पद (भगवान्)
को
अधिक-से-अधिक
सुख कैसे
पहुँचे ! उसका
अहंभाव भगवान्में
लीन हो जाता
है ।
हनुमान्जीका
भाव स्वकीया
अथवा परकीया
माधुर्य-रतिसे
भी श्रेष्ठ
है ! उन्होंने
वानरका शरीर
इसलिये धारण
किया है कि
उनको अपने
प्रेमास्पदसे
अथवा दूसरे
किसीसे
किंचिन्मात्र
भी कोई वस्तु
लेनेकी
जरूरत न पड़े ।
उनको न
रोटीकी
जरूरत है, न
कपड़ेकी
जरूरत है, न
मकानकी
जरूरत है, न
बाल-बच्चोंके
देखभालकी
जरूरत है, न
मान-बड़ाई
आदिकी जरूरत
है ! वानर तो
जंगलमें
फल-फुल-पत्ते
खाकर और
पेड़ोंपर
रहकर ही
जीवन-निर्वाह
कर लेता है ।
लौकिक
परकीया-भावमें
प्रेमीका
अपने
माता-पिता,
भाई-बहन
आदिके साथ भी
सम्बन्ध
रहता है;
परन्तु हनुमान्जीका
एक भगवान् श्रीरामके
सिवाय और किसीसे
सम्बन्ध है
ही नहीं ।
(शेष आगेके
ब्लॉगमें)
‒
‘कल्याण-पथ’
पुस्तकसे
*भक्तके
लिये कहा गया
है‒‘साह
ही को गोतु होत
है गुलाम को ।’
(कवितावली,
उत्तर॰ १०७)
विपत्सु
मन्त्रिणी
भर्तुः सा च
भार्या पतिव्रता
॥
(पद्मपुराण,
सृष्टि॰ ४७/५६)
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