।। श्रीहरिः ।।


आजकी शुभ तिथि–
वैशाख शुक्ल चतुर्दशी, वि.सं.–२०७०, शुक्रवार
व्रत-पूर्णिमा
बन्धन कैसे छूटे ?



       लोगोंने यह मान रखा है कि बन्धन नित्य है, उससे छूटनेपर मुक्ति होगी । मूलमें यह भूल हुई है । वास्तवमें बन्धन है ही नहीं । अगर बन्धन होता तो मुक्ति किसीकी भी नहीं होती; क्योंकि सत्‌ वस्तुका अभाव नहीं होता‒ ‘नाभावो विद्यते सतः’ (गीता २/१६) । बन्धन सत्‌ होता तो फिर उसका अभाव होता ही नहीं । अतः बन्धन है नहीं, केवल दीखता है । दीखता तो दर्पणमें मुख भी है, पर वहाँ मुख होता है क्या ? दर्पणमें मुख दीखता है तो उसको सामनेसे पकड़ लो, नहीं तो दर्पणके पीछेसे पकड़ लो ! है ही नहीं तो उसको पकड़ें क्या ! ऐसे ही इन सांसारिक पदार्थोंमें अपनापन दीखता है । यह शरीर, कुटुम्बी, धन-सम्पत्ति, वैभव आदि मेरा है‒ऐसा दीखता है । परन्तु आजसे सौ वर्ष पहले ये आपके थे क्या ? और सौ वर्षके बाद ये आपके रहेंगे क्या ? यह मेरापन पहले भी नहीं था और पीछे भी नहीं रहेगा तथा बीचमें भी दिन-प्रतिदिन मिट रहा है, तो यह सच्चा कैसे हुआ ? दर्पणमें पहले मुख नहीं था, पीछे भी नहीं रहेगा और इस समय भी दीखता है, पर है नहीं । जो प्रतिक्षण ‘नहीं’ में जा रहा है, वह ‘है’ कैसे हुआ ? जो नहीं है, उसको ‘है’ मान लिया । ‘नहीं’ को ‘है’ मानना छोड़ो तो मुक्ति स्वतःसिद्ध है । मेरापन पहले नहीं था तो मुक्ति थी, बादमें नहीं रहेगा तो मुक्ति रहेगी और बीचमें प्रतिक्षण छूट रहा है तो मुक्ति ही है । अतः बन्धन कृत्रिम है, केवल माना हुआ है और मुक्ति स्वतःसिद्ध है । अब इसमें देरी क्या लगे ? बताओ ।

       अगर आपने मान लिया कि बन्धन छूटेगा नहीं, तो अब वह छूटेगा ही नहीं ! क्योंकि आप परमात्माके अंश हैं । आप बन्धनको पक्का मान लोगे तो वह कैसे छूटेगा ? बन्धन तो अभी है और मुक्ति आगे होगी‒इस तरह आपने बन्धनको नजदीक और मुक्तिको दूर मान लिया, तो अब बन्धन जल्दी कैसे छूट जायगा ? वास्तवमें तो बन्धन पहले भी नहीं था, पीछे भी नहीं रहेगा और अब भी नहीं है; तथा मुक्ति पहले भी थी, पीछे भी रहेगी और अब भी है ।

       देखो, हरेक व्यक्तिका माँमें बड़ा स्नेह होता है । वह स्नेह आज वैसा है क्या ? नहीं है । यह संसारके स्नेहका नमूना है । आप व्यापार करते हो तो पहले सब माल न देखकर उसका नमूना देखते हो । उस नमूनेसे सब मालका पता लग जाता है । स्त्री मेरी है, पुत्र मेरा है, धन मेरा है, घर मेरा है‒ये सब अब प्रिय लगते हैं तो बालकपनमें माँ कम प्रिय लगती थी क्या ? माँके बिना रह नहीं सकते थे, रोने लगते थे, और माँकी गोदीमें जानेपर राजी हो जाते थे कि माँ मिल गयी ! पर माँके साथ आज वैसा स्नेह है क्या ? ऐसे कई भाग्यशाली है, जिनकी माँ अभी है; परन्तु माँके प्रति पहले जो खिंचाव था, वह खिंचाव अब नहीं है । इस नमूनेसे संसारभरकी परीक्षा हो जाती है कि अभी संसारमें जो खिंचाव है, यह भी रहनेवाला नहीं है ।

     श्रोता‒महाराजजी ! हमारा स्नेह पहले माता-पितामें, फिर स्त्रीमें, फिर पुत्रमें, फिर पौत्रमें‒इस प्रकार इधर-इधर हो रहा है !

        स्वामीजी‒तो नया स्नेह मत करो बाबा ! पुराना स्नेह तो छूट रहा है, मुक्ति तो हो रही है ।

        श्रोता‒हम तो नहीं करना चाहते ।

      स्वामीजी‒आप नहीं करना चाहते तो मैं कराता हूँ क्या ! जबरदस्ती कौन करता है ? बताओ । पुराना स्नेह तो छूट जायगा, आप नया स्नेह मत करो ।

    (शेष आगेके ब्लॉगमें)
‒ ‘भगवत्प्राप्तिकी सुगमता’ पुस्तकसे