(गत
ब्लॉगसे
आगेका)
जब
बहुत आग्रह
किया, तब हनुमान्जी
वहाँसे चले गये
और छतपर जाकर
बैठ गये ।
वहाँ बैठकर उन्होंने
लगातार चुटकी
बजाना शुरू
कर दिया;
क्योंकि
रामजीको न
जाने कब
जम्हाई आ जाय !
यहाँ
रामजीको ऐसी
जम्हाई आयी
कि उनका मुख
खुला ही रह
गया, बन्द हुआ
ही नहीं ! यह
देखकर
सीताजी बड़ी
व्याकुल हो
गयीं कि न जाने
रामजीको
क्या हो गया
है ! भरतादि
सभी भाई आ गये ।
वैद्योंको
बुलाया गया
तो वे भी कुछ
कर नहीं सके ।
वशिष्ठजी
आये तो उनको
आश्चर्य हुआ
कि ऐसी चिन्ताजनक
स्थितिमें हनुमान्जी
दिखायी नहीं
दे रहे हैं ! और
सब तो यहाँ
हैं, पर हनुमान्जी
कहाँ है ? खोज
करनेपर हनुमान्जी
छतपर चुटकी
बजाते हुए
मिले । उनको
बुलाया गया
और वे
रामजीके पास आये
तो चुटकी
बजाना बन्द
करते ही
रामजीका मुख स्वाभाविक
स्थितिमें आ
आया ! अब सबकी
समझमें आया
कि यह सब लीला हनुमान्जीकी
चुटकी
बजानेके
कारण ही थी ! भगवान्ने
यह लीला इसलिये
की थी कि जैसे
भूखेको अन्न देना
ही चाहिये,
ऐसे ही
सेवाके लिये
आतुर हनुमान्जीको
सेवाका अवसर
देना ही
चाहिये, बन्द
नहीं करना
चाहिये । फिर भरतादि भाइयोंने
ऐसा आग्रह
नहीं रखा ।
तात्पर्य है
कि संयोग-रति
और वियोग-रति‒दोनोंमें
ही हनुमान्जी
भगवान्की
सेवा
करनेमें
तत्पर रहते
हैं ।
इस
प्रकार हनुमान्जीका
दास्य, सख्य,
वात्सल्य
तथा
माधुर्य-भाव
बहुत
विलक्षण है ! इस
कारण हनुमान्जीकी
ऐसी विलक्षण
महिमा है कि
संसारमें भगवान्से
भी अधिक उसका
पूजन होता है । जहाँ भगवान्
श्रीरामके
मन्दिर हैं,
वहाँ तो उनके
साथ हनुमान्जी
विराजमान
हैं ही, जहाँ भगवान्
श्रीरामके
मन्दिर नहीं
हैं, वहाँ भी हनुमान्जीके
स्वतन्त्र
मन्दिर हैं ।
उनके मन्दिर
प्रत्येक
गाँव और
शहरमें,
जगह-जगह
मिलते हैं ।
केवल
भारतमें ही
नहीं,
प्रत्युत
विदेशोंमें भी
हनुमान्जीके
अनेक मन्दिर
हैं । इस
प्रकार वे
रामजीके साथ
भी पूजित
होते हैं और
स्वतन्त्र
रूपसे भी
पूजित होते
हैं । इसलिये
कहा गया है‒
मोरे
मन प्रभु अस
बिस्वासा ।
राम
ते अधिक राम
कर दासा ॥
(मानस
७/१२०/८)
भगवान्
शंकर कहते
हैं‒
हनुमान्
सम नाहिं बड़भागी ।
नहीं
कोउ राम चरन
अनुरागी ॥
गिरजा
जासु प्रीति
सेवकाई
।
बार
बार प्रभु
निज मुख गाई ॥
(मानस
७/५०/४-५)
स्वयं
भगवान् श्रीराम
हनुमान्जीसे
कहते हैं‒
मदङ्गे
जीर्णतां
यातु यत्
त्वयोपकृतं
कपे ।
नरः
प्रत्युपकाराणामापत्स्वायाति
पात्रताम् ॥
(वाल्मीकि॰ उत्तर॰ ४०/२४)
‘कपिश्रेष्ठ
! मैं तो यही
चाहता हूँ कि
तुमने जो-जो
उपकार किये हैं,
वे सब मेरे
शरीरमें ही
पच जायँ ! उनका
बदला
चुकानेका
मुझे कभी
अवसर न मिले;
क्योंकि
उपकारका बदला
पानेका अवसर
मनुष्यको
आपत्तिकालमें
ही मिलता है (मैं
नहीं चाहता
कि तुम कभी
संकटमें पड़ो
और मैं
तुम्हारे
उपकारका
बदला चुकाऊँ) ।’
नारायण
!
नारायण !!
नारायण !!!
‒
‘कल्याण-पथ’
पुस्तकसे
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