प्रथम
भगति संतन्ह
कर संगा ।
(मानस ३/३४/४)
सन्त-महात्माओंका
संग पहली
भक्ति है ।
भक्ति
सुतंत्र सकल
सुख खानी ।
बिनु
सतसंग न पावहिं
प्रानी ॥
(मानस
७/४४/३)
भक्ति
स्वतन्त्र
है, सम्पूर्ण
सुखोंकी खान
है । कहते हैं‒
सतसंगत
मुद मंगल
मूला ।
सोई
फल सिधि सब
साधन फूला ॥
(मानस
१/२/४)
सम्पूर्ण
मंगलोंकी
मूल
सत्संगति है ।
वृक्षमें
पहिले मूल
होता है और
अन्तिम
लक्ष्य फल
होता है ।
सत्संगति
मूल भी है और
फल भी है ।
जितने अन्य
साधन हैं सब फूल-पत्ती
हैं, जो मूल और
फलके बीचमें
रहनेवाली
चीजें हैं । सत्संगतिमें
ही सब साधन आ
जाते हैं ।
इसलिये
सत्संगकी
बड़ी भारी
महिमा है ।
सुन्दरदासजी
महाराज कहते
हैं‒
सन्त
समागम करिये
भाई ।
यामें
बैठो सब मिल
आई ॥
सन्त-समागम
करना चाहिये ।
यह नौकाकी
तरह है, इसमें
बैठकर पार हो
जायेंगे ।
सत्संग
चन्दनकी तरह
पवित्र बना
दे और पारसरूपी
सत्संगसे
कंचन-जैसा हो
जाय‒ऐसा
सत्संग है ।
आगे
सुन्दरदासजी
महाराज फिर
कहते हैं‒
और
उपाय नहीं
तिरने का,
सुन्दर
काढहि राम
दुहाई ।
रामजीकी
सौगन्द दे दी
कि कल्याणका
और कोई उपाय
नहीं है । यह
अचूक उपाय है ।
इसलिये
सत्संगमें
जाकर बैठ
जाएँ तो
निहाल हो जायें
। सत्का संग
करो । जहाँ
भगवान्की चर्चा
हो, सत्-चर्चा
हो, सत्-चिन्तन
हो, सत्कर्म
हो और सत्संग
हो तो सत्के
साथ सम्बन्ध
हो जाय । बस,
इससे निहाल
हो जाय जीव ।
जीवको
जितने दुःख
आते हैं, सब असत्के
संगसे आते
हैं और
अविनाशीका
संग करते ही
स्वतः निहाल
हो जाता है,
क्योंकि वह
भगवान्का
अंश है ।
ईश्वर
अंस जीव
अबिनासी ।
चेतन
अमल सहज
सुखरासी ॥
(मानस
७/११६/१)
अतः
सत्संगसे,
सत्का
प्रेम
होनेसे सत्
प्राप्त हो
जाता है ।
सत्संग मिल
जाय,
परमात्माका
संग मिल जाय
तो निहाल हो
जाय । सत्से
जहाँ
सम्बन्ध
होता है, वह
सत्संग है ।
भगवान्के
साथ जो संग है,
वह सत्संग है ।
असली
संग होता है
असत्के
त्यागसे । वैसे असत्के
द्वारा भी
सत्संगमें
सहायता होती
है, जैसे सत्-चर्चा
करते हैं तो
बिना वाणीसे
कैसे करें ? सत्कर्म
करते हैं तो
बिना बाहरी
क्रियासे
सत्कर्म
कैसे करें ?
सत्-चिन्तन
करते हैं तो
मनके बिना
कैसे करें ? पर
सत्संगमें
दूसरा नहीं
है;
अपने-आपहीमें
मिल जाय,
तल्लीन हो
जाय । सत्संग,
सत्-चिन्तन,
सत्कर्म, सत्-चर्चा
और सद्ग्रन्थोंका
अवलोकन ‒इन
सबका
उद्देश्य
सत्संग है ।
सत्की
प्राप्तिके
लिये असत्को
दूर कर दे तो
सत्संगका
उद्देश्य
पूरा हो जाता
है ।
‘सनमुख
होइ जीव मोहि
जबहीं ।’ असत्से
विमुख
होनेपर सत्का
संग हो जाता
है । राग,
द्वेष, इर्षा
आदिका जो
कूड़ा-करकट
भीतरमें भरा
है, यह सत्संग
नहीं होने
देता । ऐसा
मालूम होता
है कि मनुष्य
चाहे तो इनका
त्याग कर
सकता है;
परन्तु फिर
भी इसे
कठिनता मालूम
देती है; कबतक ?
जबतक पक्का
विचार न हो
जाय । पक्का
विचार
करनेपर यह
कठिनता नहीं
रहती । चाहे
जो हो, हमें तो
इधर ही चलना
है, पक्का
विचार हो जाय,
फिर सुगमता
हो जाती है ।
(शेष आगेके
ब्लॉगमें)
‒ ‘जीवनोपयोगी
प्रवचन’
पुस्तकसे
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