(गत
ब्लॉगसे
आगेका)
मनमें
ईर्ष्या, राग,
द्वेष आदि
दोष भरे हुए
हैं । बहुत-से
भाई-बहन इस
बातको जानते
ही नहीं है और
जो जानते हैं
वे विशेष
खयाल नहीं
करते । कई
खयाल करके
छोड़ना भी
चाहते हैं,
लेकिन इसमें
सुख लेते
रहते हैं । इस
कारण राग,
द्वेष,
ईर्ष्या आदि
छूटते नहीं, क्योंकि
असत्का संग
रहता है ।
सत्का
संग (सत्संग)
मिल जाय तो
आदमी निहाल
हो जाय । जहाँ
सत्का संग
हुआ, वह निहाल
हुआ । कारण
क्या है ?
परमात्मा
सत् हैं ।
बीचमें
जितना-जितना
असत्का
सम्बन्ध मान
रखा है, वही
बाधा है ।
जैसे
कल्पवृक्षके
नीचे जानेसे
सब काम सिद्ध होते
हैं, वैसे ही
सत्संग
करनेसे सब
काम सिद्ध
होते हैं । अर्थ,
धर्म, काम,
मोक्ष‒चारों
पुरुषार्थ
सिद्ध होते हैं
। तो क्या
सत्संगसे धन
मिल जाता है ?
कहते हैं कि सत्संगसे
बड़ा विलक्षण
धन मिलता है ।
रुपया
मिलनेसे
तृष्णा
जागृत होती
है और सत्संग
करनेसे
तृष्णा मिट
जाती है ।
रुपयोंकी
जरूरत ही
नहीं रहती ।
गंगा
पापं शशी
तापं दैन्यं
कल्पतरुर्हरेत्
।
पापं
तापं तथा
दैन्यं सद्यः
साधुसमागमः
॥
गंगाजीमें
स्नान
करनेसे पाप
दूर हो जाते
हैं;
पूर्णिमाके
दिन
चन्द्रमा पूरा
उदय होता है,
उस दिन तपत
(गरमी) शान्त
हो जाती है;
कल्पवृक्षके
नीचे बैठनेसे
दरिद्रता
दूर हो जाती
है । पर सत्संगसे
तीनों बातें
हो जाती हैं‒पाप
नष्ट होते
हैं, भीतरी ताप
मिट जाता है
और संसारकी
दरिद्रता
दूर हो जाती
है ।
चाह
गई चिन्ता
मिटी, मनुआ
बेपरवाह ।
जिनको
कछू न चाहिए,
सो साहन
पतिशाह ॥
सत्संगसे
हृदयकी
चाहना भी मिट
जाती है । यह बात एकदम
सच्ची है,
सत्संग
करनेवाले
भाई-बहन तो इस
बातको जानते
हैं । बिलकुल
ठीक बात है, सत्संगसे
हृदयकी जलन
दूर हो जाती
है ।
मनुष्य
चाहता है कि
ऐसे हो जाय,
वैसे हो जाय
तो ऐसी बात
आती है कि‒
मना
मनोरथ छोड़ दे तेरा किया न
होय ।
पानी
में घी निपजे
तो सूखी खाय न
कोय ॥
*** ***
यद्भावि
न तद्भावि भावि
चेन्न
तदन्यथा ।
इति
चिन्ताविषघ्नोऽयमगदः
किं न पीयते ॥
जो
नहीं होना है,
वह नहीं होगा
और जो
होनेवाला है
वह टल नहीं
सकता, होकर
रहेगा फिर
ऐसा क्यों आग्रह
कि यह होना
चाहिये, यह
नहीं होना
चाहिये । बस
हाँ-में-हाँ
मिला दें ।
सत्संग भी एक
कला है । सत्संगमें
कला मिलती है,
दुःखोंसे पार
होनेकी । जैसे
समुद्रमें
डूबनेवालेको
तैरनेकी कला
हाथ लग जाय,
ऐसे
सत्संगमें
युक्ति मिल
जाय तो निहाल
हो जाय ।
सत्संगमें
उत्तम विचार
मिलते हैं । ज्ञानमार्गमें
तो यहाँतक
बताया है‒
धन
किस लिए है
चाहता, तू आप
मालामाल है ।
सिक्के
सभी जिससे
बनें,
तू वह महा
टकसाल है ॥
उस
धनके आगे तू
इस धनको क्यों
चाहता है ?
धन-ही-धन है ।
परमात्मा-ही-परमात्मा
है; लबालब भरा
हुआ है । उस
धनसे धन्य हो
जाय ।
परमात्माका,
सत्का
दर्शन‒यह
सत्संग करा
देता है ।
(शेष आगेके
ब्लॉगमें)
‒ ‘जीवनोपयोगी
प्रवचन’
पुस्तकसे
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