(गत
ब्लॉगसे
आगेका)
सत्संगमें
व्यापार एक
ही चलता है,
भगवान्की
बात । उसीको
कहना, सुनना,
समझना, विचार
करना, चिन्तन करना
। भगवान्
जिसपर कृपा
करते हैं,
उसको सत्संग
देते हैं । सत्संग दिया
तो समझो
भगवान्के
खोजनेकी
बढ़िया चीज
मिल गयी । जो
भगवान्के
प्यारे होते
हैं, वे
भगवान्के
भीतर रहते
हैं । यह
हृदयका धन है ।
माता-पिता
जिस बालकपर
ज्यादा
स्नेह रखते
हैं, उसको
अपनी पूँजी
बता देते हैं
कि बेटा, देखो
यह धन है । ऐसे
ही भगवान्
जब बहुत कृपा
करते हैं तो
अपने
खजानेकी चीज
(पूँजी) सन्त-महात्माओंको देते हैं‒लो
बेटा, यह धन
हमारे पास है ।
सत्संग
मिल जाय तो समझना
चाहिये कि
हमारा
उद्धार करनेकी
भगवान्के
मनमें
विशेषतासे आ
गयी; नहीं तो
सत्संग
क्यों दिया ? हम
तो ऐसे ही
जन्मते-मरते
रहते, यह
अडंगा क्यों लगाया
? यह तो कल्याण
करनेके लिये
लगाया है । जिसे
सत्संग मिल
गया तो उसे यह
समझना चाहिये
कि भगवान्ने
उसे
निमन्त्रण
दे दिया कि आ
जाओ । ठाकुरजी
बुलाते हैं,
अपने तो
प्रेमसे
सत्संग करो,
भजन-स्मरण
करो, जप करो ।
सत्संग
करनेमें सब
स्वतन्त्र
हैं । सत्
परमात्मा सब
जगह मौजूद है ।
वह
परमात्मा मेरा
है और मैं
उसका हूँ‒ऐसा
मानकर
सत्संग करे
तो वह निहाल
हो जाय ।
सत्संग
कल्पद्रुम
है । सत्संग
अनन्त
जन्मोंके
पापोंको
नष्ट-भ्रष्ट
कर देता है ।
जहाँ सत्की
तरफ गया कि
असत् नष्ट
हुआ । असत्
तो बेचारा
नष्ट ही होता
है । जीवित
रहता ही नहीं ।
इसने पकड़
लिया असत्को
। अगर यह सत्की
तरफ जायगा तो
असत् तो
खत्म होगा ही ।
सत्संग
अज्ञानरूपी
अन्धकारको
दूर कर देता है
। महान्
परमानन्द-पदवीको
दे देता है ।
यह
परमानन्द-पदवी
दान करता है ।
कितनी
विलक्षण बात
है ! सत्संग
क्या नहीं
करता ? सत्संग
सब कुछ करता
है । ‘प्रसूते
सद्बुद्धिम्
।’ सत्संग
श्रेष्ठ
बुद्धि पैदा
करता है ।
बुद्धि
शुद्ध हो
जाती है । गोस्वामीजी
महाराज
लिखते हैं‒
मज्जन
फल पखिय
ततकाला ।
काक
होहिं पिक
बकउ मराला ॥
(मानस
१/२/१)
साधु-समाजरूपी
प्रयागमें
डुबकी
लगानेसे
तत्काल फल
मिलता है ।
कौआ कोयल बन
जाता है,
बगुला हंस बन
जाता है अर्थात्
सत्संग
करनेसे रंग
नहीं बदलता,
ढंग बदला
जाता है । जो
वाणी कौआकी
तरह है, वह
कोयलकी तरह
हो जाती है ।
जो बगुला
होता है, वह
हंसकी तरह
नीर-क्षीर
विवेक करने
लगता है । सत्संगसे
आचरण और
विवेक
तत्काल बदल
जाते हैं । सत्संग मिल
जाय तो ये बदल
जाते हैं अगर
नहीं बदले तो,
या तो सत्संग
नहीं मिला या
सत्संगमें
आप नहीं गये ।
दोनोंके
मिलनेसे ही
काम बनता है ।
पारस लोहेको
सोना बना दे,
अगर मिले तब
तो, पर बीचमें
पत्ता रख
दिया जाय तो
फिर कुछ नहीं बननेका
।
भगवान्के
प्रति व
सन्त-महात्माओंके
प्रति
निष्काम-भावसे
प्रेम करो ।
भगवान्
मीठे लगें,
प्यारे लगें,
अच्छे लगें । क्यों लगें ?
क्योंकि वे
मेरे हैं ।
बच्चेको माँ
अच्छी लगती
है । क्यों
अच्छी लगती
है ? क्योंकि
मेरी माँ है ।
ऐसे ही
भगवान्के
साथ अपनापन
रहे, तो यह
सत्संग होता
है । भगवान्
हमारे हैं, हम
भगवान्के
हैं । कैसी
बढ़िया बात है ।
(शेष आगेके
ब्लॉगमें)
‒ ‘जीवनोपयोगी
प्रवचन’
पुस्तकसे
|