(गत
ब्लॉगसे
आगेका)
एक
सज्जन मिले ।
वे कहते थे कि
तीर्थोंका
माहात्मय
बहुत है ।
गंगाजी
अच्छी हैं,
यमुनाजी
अच्छी हैं, प्रयागराज
बड़ा अच्छा है‒ऐसा
लोग कहते तो
हैं, परन्तु
किराया तो
देते नहीं ।
किराया दें
तो वहाँ
जायें ।
सत्संगमें
बढ़िया-बढ़िया
बात सुनते
हैं और परमात्माके
धाम जानेके
किराया भी
मिलता है । सत्संगमें
ज्ञान मिलता
है, प्रेम
मिलता है, भगवान्की
भक्ति मिलती
है । भगवान्
शबरीसे कहते
हैं‒‘प्रथम
भगति संतन्ह
कर संगा ।’ दण्डक वन था,
उसमें वृक्ष
आदि सब सूखे
हुए थे ।
उसमें शबरी
रहती थी ।
यहाँ शबरीको
सत्संग मिल
गया, यह
भगवान्की
कृपा है ।
मतंग ऋषि थे,
बड़े वृद्ध
सन्त, कृपाकी
मूर्ति ।
उन्होंने
शबरीको
आश्वासन
दिया था कि
बेटा, तू चिन्ता
मत कर, यहाँ रह
जा ।
ऋषि-मुनियोंने
इसका बड़ा
विरोध किया,
पर सन्तकी
कृपा बड़ी
विचित्र
होती है ।
धनी
आदमी राजी हो
जाय तो धन दे
दे, अपनी कुछ
चीज दे दे,
परन्तु सन्त
कृपा करें तो
भगवान्को
दे दें । उनके
पास भगवान्रूपी
धन होता है । वे
सामान्य
धनके धनी
नहीं होते
हैं, असली
धनके धनी
होते है,
मालामाल
होते हैं और
वह माल ऐसा
विलक्षण है कि
‘दानेन
वर्धते
नित्यम्’,
ज्यों-ज्यों
देते हैं,
त्यों-त्यों
बढ़ता है । ऐसा
अपूर्व धन है ।
अतः खुला
खर्च करते
हैं । खुला
भंडार पड़ा
हुआ है,
अपार, असीम,
अनन्त है;
जिसक कोई
अन्त ही नहीं है
। भगवान्का
ऐसा अनन्त
अपार खजाना
है । फिर भी
मनुष्य
मुफ्तमें
दुःख पा रहे
हैं । इसलिये
सज्जनो, बड़े
आश्चर्यकी
बात है !
पानीमें मीन पियासी, मोहि देखत
आवै हाँसी ।
जल
बिच मीन, मीन
बिच जल है, निश
दिन रहत
पियासी ॥
भगवान्में
सब संसार है
और सबके भीतर
भगवान् हैं ।
उन भगवान्से
विमुख होते
हैं तो
सन्त-महात्मा
जीवको परमात्माके
सम्मुख कर
देते हैं । ‘सनमुख होइ
जीव मोहि
जबहीं ।’ अरे
भाई !
परमात्मा तो
सम्मुख है ही,
हमारा प्यारा
माता-पिता,
भाई-बन्धु,
कुटुम्बी,
सम्बन्धी‒वह
सब तरहसे
अपना है । वे
प्रभु हमारे
हैं । सन्त
ऐसी बात बता
दें और हम वह
बात सुनकर
पकड़ लें तो
बड़ा भारी लाभ
होता है । स्वयं
हम पकड़ें और
किसी
सन्त-महात्माके
कहनेसे
हृदयसे
पकड़ें तो
उसमें बड़ा
अन्तर होता
है ।
सन्त-महात्मा
जो कहते हैं,
उनके
वचनोंका आदर
करो । जमानत भी ली
जाती है तो
इज्जतदार
आदमीकी । हर
एककी जमानत नहीं
होती है । ऐसे
ही भगवान्के
दरबारमें
सन्त-महात्माओंकी
और भक्तोंकी बड़ी
इज्जत है, तभी तो
गोस्वामीजीने
कह दिया‒
सत्य
बचन आधीनता पर तिय
मातु समान ।
इतने
पै हरि ना
मिले तो
तुलसीदास
जमान ॥
तुलसीदासजीकी
जमानत है ।
सन्त लोग
जमानत दे
देते हैं और
वह भगवान्के
यहाँ चलती है ।
सन्तोंके
यहाँ
परमात्माका
बड़ा खजाना
रहता है ।
मुफ्तमें धन
मिलता है,
मुफ्तमें
कमाया हुआ, तैयार
किया हुआ,
सत्संगसे यह
सब मिल सकता
है ।
प्रश्न‒कुछ
लोगोंको
सत्संग करना
सुहाता ही
नहीं । इसका
क्या कारण है ?
उत्तर‒पापीका
यह स्वाभाव
है कि उसे
सत्संग सुहाता
नहीं ।
पापवंत
कर सहज
सुभाऊ ।
भजनु
मोर तेहि भाव
न काऊ ॥
(मानस
५/४३/२)
(शेष आगेके
ब्लॉगमें)
‒ ‘जीवनोपयोगी
प्रवचन’
पुस्तकसे
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