(गत
ब्लॉगसे
आगेका)
निषिद्ध
आचरणकी
इच्छा हो
जाती है । तो
निषिद्ध
आचरण छूट
जायगा । यह
सुनकर डर
लगता है न । तो छोड़ते डर
लगता है इससे
सिद्ध होता
है कि
निषिद्ध
आचरणको आपने
महत्त्व
दिया है । और
महत्त्व
देकर छोड़ते
हैं तो कैसे
छूटेगा ? उसका
आदर आपने कर
दिया ।
उपेक्षा करो ।
एक करना, एक न
करना दो चीज
हुई । और एक
उपेक्षा
तीसरी चीज
हुई । क्रिया
करनेमें तो
विधि करना है,
निषिद्ध नहीं
करना है ।
परन्तु
भीतरमें
विधि और
निषेध
दोनोंसे
उदासीन रहो ।
क्योंकि
विधि और
निषेध दोनों
दीखते हैं
किसी प्रकाशमें
। उस
प्रकाशका
सम्बन्ध न
विधिके साथ
है न निषेधके
साथ है ।
विधिका
सम्बन्ध
निषेधके साथ
है । निषेधकी
निवृत्ति
करनेके लिये
विधि है ।
विधि रखनेके
लिये विधि
नहीं है ।
इसलिये विधि-निषेध,
भय और आशा‒ये
दोनों छोड़ दो । बात खयालमें
आयी कि नहीं ? विधि और
निषेधमें
विधिका लोभ
है और
निषेधका भय
है । ये भय और
लोभ जबतक
रहेंगे, तबतक
आपकी
स्वरूपमें
स्थिति नहीं
होगी । इसलिये भय और
लोभकी
बेपरवाही कर
दो । ये छूट
जायेंगे । बेपरवाही
करो केवल
बेपरवाही । आ गया भय तो आ
गया । लोभ हो
गया तो हो गया ।
आपकी
अवस्थामें
कहता हूँ । हर
एकके लिये
मैं नहीं
कहता हूँ । हर
एक बात तो
समझेगा नहीं,
उलटा असर हो
जायगा और
आपके उलटा
असर नहीं
होगा, नहीं
होगा, नहीं होगा
। क्योंकि
ये समझमें आ
गयी कि विधि
और निषेध‒ये
करना चाहिये
और ये नहीं
करना चाहिये,
ये दोनों
होते हैं और
मिटते हैं,
आते हैं और
जाते हैं और
आने-जानेवालोंकी
रहनेवालेपर
कोई जिम्मेवारी
नहीं है,
रहनेवालेपर
कोई असर नहीं
है,
रहनेवालेमें
कुछ बनता-बिगड़ता
नहीं है, न निषेधसे
बनता है, न
विधिसे बनता
है !और न
निषेधसे
बिगड़ता है, न
विधिसे
बिगड़ता है,
उसका
बनता-बिगड़ता
है ही नहीं, तो
आपपर असर कैसे
पड़ेगा ?
उदासीनवदासीनो गुणैर्यो न
विचाल्यते ।
गुणा
वर्तन्त
इत्येवं
योऽवतिष्ठति
नेङ्गते ॥
(गीता
१४/२३)
वह
विचलित होता
ही नहीं है ।
मानो
ज्यों-का-त्यों
रहता है यह
अर्थ हुआ इसका
। भय और आशा ये
दोनों छोड़ो ।
भय और
आशामें
संसार-मात्र बँधा
है । किसी
प्रकारका न
तो भय हो और न
किसी
प्रकारकी आशा
हो । जितना
चुप रह सको,
चुप रहो । और
हे नाथ !
मेरेसे नहीं
छूटती कहते
रहो । कह
सकते हो कि
नहीं ? जितना
मिनट चुप रह
सको चुप रह
जाओ । इस
शरणागतिमें
और चुप
रहनेमें बड़ी
भारी ताकत है । तो आप
निर्बलोंको
बल आ जायगा और
वह कार्य हो जायगा
।आपमें तो आ
जायगा बल और
काम हो जायगा
सिद्ध । आपमें
बल आयेगा
निर्विकार
रहनेसे और
सिद्ध होगा
शरण होनेसे । चुप होनेसे
शक्ति आती है ।
यह बात
अनुभव सिद्ध
है कि
बोलते-बोलते
बोलना बन्द
हो जायगा ।
पड़े रहो
बोलनेकी
शक्ति आ
जायगी ।
शक्ति स्वतः
आती है
निष्क्रिय
होनेसे और
सक्रिय
होनेसे
शक्ति नष्ट
होती है ।
जितने भोग-संग्रहके
लिये काम
करते हैं
उनमें थकावट होती
है । नींद
लेनेसे
थकावट दूर हो
जाती है और
शक्ति आती है ।
निष्क्रिय
होनेसे
करनेकी
शक्ति आती है
यह तो अनुभव
है न ? इसलिये
निष्क्रिय
रहनेसे
शक्ति आ
जायगी । और हे
नाथ ! ऐसा
कहनेसे काम
सिद्ध हो
जायगा । यह
रामबाण उपाय
है । इसमें
सन्देह हो तो
बोलो । तो शरण
होकर
निसन्देह हो
जाओ । यह
तुम्हारा
असली इलाज है ! इस
अवस्थामें
चुप होनेमें
परिश्रम
नहीं करना है ।
कोई क्रिया
हो गयी तो हो
गयी, नहीं हुई
तो नहीं हुई ।
अपने मतलब
नहीं । अपनी
तरफसे कोई
क्रिया न तो
करो और न ही ना
करो । दोनोंसे
उदासीन रहो ।
क्रिया हो तो
होती रहे । इस
तरह
तत्त्वज्ञ
जीवन्मुक्त
महापुरुष
जिसको कहते
हैं उसकी
अभी-अभी
सिद्धि हो
गयी ।
नारायण
!
नारायण !!
नारायण !!!
‒ ‘जीवनोपयोगी
प्रवचन’
पुस्तकसे
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