भगवान्की
कही हुई गीता
बहुत ही
विचित्र है ।
गीतापर
ज्यों-ज्यों
विचार करें,
त्यों-ही-त्यों
इसकी
विलक्षणता
मिलती ही चली
जाती है । अगर
मनुष्यको
सम्पूर्ण
संसारका
आधिपत्य मिल
जाय,
इन्द्रका राज्य
मिल जाय,
कुबेरका धन
मिल जाय,
ब्रह्माजीका
पद मिल जाय, तो
भी उसका दुःख
नहीं मिट
सकता ।
परन्तु वह गीतामें
कही हुई बात
मान ले तो
उसका दुःख
टिक नहीं
सकेगा; सदाके
लिये मिट
जायगा । उसका
सन्ताप, जलन,
उद्वेग, हलचल,
चिन्ता, शोक,
भय आदि सभी
आफतें मिट
जायँगी और
वह सदाके
लिये
कृतकृत्य,
ज्ञातज्ञातव्य
और प्राप्तप्राप्तव्य
हो जायगा
अर्थात्
उसके लिये
कुछ भी करना,
जानना और
पाना बाकी नहीं
रहेगा;
क्योंकि यह
वास्तविकता
है । गीताकी
ऐसी विलक्षण
महिमा है कि
जिसका कोई वर्णन
नहीं कर सकता । कारण कि
वर्णन
करनेमें
वाणी सीमित
है, चिन्तन
करनेमें मन
सीमित है,
निश्चय
करनेमें बुद्धि
सीमित है ।
परन्तु
भगवान्की
वाणी असीम है ।
प्रकृतिजन्य
सम्पूर्ण
पदार्थ
सीमित हैं । प्रकृतिसे
अतीत
तत्त्वका
वर्णन
प्रकृतिका कार्य
बुद्धि भी
नहीं कर सकती,
फिर मनुष्य
क्या वर्णन
करेगा !
बुद्धि
प्रकृतिको भी
पूरा नहीं
जान सकती, फिर प्रकृतिसे
अतीत
तत्त्वको
कैसे जानेगी ?
जैसे, मिट्टीसे
बना घड़ा
मिट्टीको भी
पूरा नहीं भर
सकता, फिर
आकाशको कैसे
भरेगा ?
गीता
स्पष्टरूपसे
कहती है‒‘वासुदेवः
सर्वम्’ (७/१९) ‘सब कुछ
वासुदेव ही
है’ । इस
बातको केवल
स्वीकार कर
लें । ऐसा
देखनेमें,
समझनेमें,
अनुभवमें
नहीं आये, तो
भी गीतामें
आये भगवान्के
वचनको
श्रद्धा-विश्वासपूर्वक
दृढ़तासे स्वीकार
कर लें । फिर
भगवत्कृपासे
यह बात स्वतः
समझमें आ
जायगी; क्योंकि
तत्त्वसे
वास्तवमें
यही है । जैसी
बात
वास्तवमें
है, वैसी बात
मान लेनेसे वह
धीरे-धीरे
भीतर बैठ
जाती है और
फिर
भगवत्कृपासे
साफ़ दिखने लग
जाती है । सब कुछ
भगवान् ही
हैं—यह
ऊँची-से-ऊँची
बात है और बड़ी
सुगमतासे
प्राप्त की
जा सकती है । अब इसकी
प्राप्तिका
साधन बताया
जाता है ।
(१)
भगवान्
कहते हैं‒
नासतो
विद्यते भावो
नाभावो
विद्यते सतः ।
(गीता
२/१६)
‘असत्की
सत्ता
विद्यमान
नहीं है और
सत्का अभाव
विद्यमान
नहीं है ।’
‒इन
सोलह
अक्षरोंमें
सम्पूर्ण वेद,
पुराण,
शास्त्रका
तात्पर्य
भरा हुआ है ! असत् और सत्‒इन
दोको ही
प्रकृति और
पुरुष, क्षर
और अक्षर, शरीर
और शरीरी,
अनित्य और
नित्य,
नाशवान् और
अविनाशी आदि
नामोंसे कहा
गया है ।
देखनेमें,
सुननेमें,
समझनेमें,
चिन्तन
करनेमें,
निश्चय
करनेमें जो
कुछ भी आता है,
वह सब ‘असत्’
है । जिसके
द्वारा
देखते, सुनते, चिन्तन
करते हैं, वह
भी ‘असत्’ है
और
दीखनेवाला
भी असत् है ।
असत्की
सत्ता
विद्यमान नहीं है
और सत्का
अभाव
विद्यमान
नहीं है‒इसका
तात्पर्य है
कि एक सत्-तत्त्व
(परमात्मा) के सिवाय
कुछ भी नहीं
है ।
यह सबके
प्रत्यक्ष
अनुभवकी बात
है कि अपने रागके
कारण
दीखनेवाले
शरीर और
संसार एक
क्षण भी स्थिर
नहीं रहते,
प्रत्युत
हरदम मिट रहे
हैं । जैसे,
हम पहले बालक
थे । हमने
बालकपनको
कभी छोड़ नहीं,
फिर भी वह छूट
गया । ऐसे ही
जवानी भी छूट
रही है,
वृद्धावस्था
भी छूट रही है
और शरीर भी
छूट रहा है ।
(शेष आगेके
ब्लॉगमें)
‒ ‘सब जग
ईश्वररूप है’
पुस्तकसे
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