(गत
ब्लॉगसे
आगेका)
सब-का-सब
संसार, तीनों
लोक, चौदह
भुवन,
सम्पूर्ण
ब्रह्माण्ड
निरन्तर
अभावमें जा
रहें हैं‒‘नासतो
विद्यते
भावः’ ।
परन्तु
परमात्मा और
उनके अंश
जीवात्माका
कभी अभाव
नहीं होता‒‘नाभावो
विद्यते सतः’ । हमने अपने
जीवनमें कई
कथाएँ सुनी
हैं,
व्याख्यान
सुने हैं,
शास्त्र पढ़े
हैं, पर ऐसा
कहीं सुनने,
पढ़नेमें
नहीं आया कि
परमात्मा
बदल गये,
पहलेवाले
नहीं रहे !
परमात्मा तो ‘है’
और संसार
‘नहीं’ है‒इन
दोनोंके एक
ही अन्त
(तत्त्व) का
तत्त्वदर्शी,
अनुभवी
महापुरुषोंने
अनुभव किया
है अर्थात्
इन दोनोंका
निष्कर्ष एक
परमात्मतत्त्व
ही है—‘उभयोरपि
दृष्टोऽन्तस्त्वनयोस्तत्त्वदर्शिभिः’
(गीता २/१६) ।
तात्पर्य है
कि सत्
(अपरिवर्तनशील)
और असत्
(परिवर्तनशील)
‒ दोनों
अलग-अलग हैं ।
सत् असत्
नहीं हो सकता
और असत् सत्
नहीं हो सकता;
परन्तु
तत्त्वसे
दोनों एक ही हैं
। गीतामें
आया है‒
विद्याविनयसम्पन्ने
ब्राह्मणे
गवि हस्तिनि ।
शुनि
चैव श्वपाके
च पण्डिताः
समदर्शिनः ॥
(५/१८)
तात्पर्य
है कि
ब्राह्मण और
चाण्डाल, गाय
और कुत्ता, हाथी
और चींटी‒दोनों
अलग-अलग
होनेपर भी
ज्ञानी
उनमें एक समरूप
परमात्माको
देखता है ।
इसी तरह सत्
और असत्
अलग-अलग
होनेपर भी
भक्त उनमें
एक भगवान्को
ही देखता है‒‘त्वमक्षरं
सदसत्तत्परं
यत्’ (गीता
११/३७) । जैसे
दिन और रात‒दोनों
सापेक्ष हैं,
दिनकी
अपेक्षा रात
है और रातकी
अपेक्षा दिन
है, पर सूर्यमें
न दिन है, न रात
है अर्थात्
वह निरपेक्ष
है । ऐसे ही
सत् और असत्
दोनों
सापेक्ष हैं,
पर
परमात्मतत्त्व
निरपेक्ष है ।
इसलिये
तत्वदर्शी
महापुरुष
सत् और असत्‒दोनोंके
एक ही अन्त
अर्थात्
सत्-तत्त्व
(परमात्मतत्त्व)
का अनुभव
करते हैं ।
जो
‘है’, वह तो है ही
और जो ‘नहीं’ है,
वह है ही नहीं‒
है
सो सुन्दर है
सदा, नहिं सो
सुन्दर
नाहिं ।
नहिं
सो परगट
देखिये, है सो
दीखे नाहिं ॥
जो
मिट रहा है, वह
संसार है और
जो टिक रहा है,
वह परमात्मा
है । जैसे
गंगाजीका
प्रवाह
निरन्तर
बहता हुआ समुद्रमें
जा रहा है ।
रात्रिमें
हम छिपकर
परीक्षा
करें तो भी
उसका प्रवाह
ज्यों-का-त्यों
बह रहा है ।
गंगाजीको
कोई देखे या न देखे,
कोई जाने या न
जाने, कोई
माने या न
माने, कोई
परवाह नहीं ।
उसका प्रवाह
तो निरन्तर
अपने-आप
स्वाभाविक बह
रहा है । ऐसे
ही यह सब-का-सब
संसार
निरन्तर बह
रहा है, और बहते
हुए अभाव (नाश)
की तरफ जा रहा
है । इस बहते
हुए
संसारमें वह
परमात्मा ही
‘है’-रूपसे दीख
रहा है । ‘संसार
है’‒इसमें
‘संसार’ तो मिट रहा है
और ‘है’ टिक
रहा है ।
जासु
सत्यता तें जड़ माया ।
भास
सत्य इव मोह
सहाया ॥
(मानस,
बालकाण्ड
११७/४)
यह
जो संसार दीख
रहा है, इसकी
खुदकी
स्वतन्त्र
सत्ता नहीं
है, प्रत्युत
यह
परमात्माकी
ही एक आभा है,
झलक है,
प्रकाश है । अतः आभा
(संसार) पर
दृष्टि न
रखकर
परमात्माकी
तरफ ही
दृष्टि रखना
है, ‘नहीं’ को न
देखकर ‘है’ को
ही देखना है ।
इसीको गीताने
‘वासुदेवः
सर्वम्’ कहा
है ।
तात्पर्य है
कि वह सत् ही
असत्-रूपसे
दीख रहा है‒‘सदसच्चाहमर्जुन’
(गीता ९/१९) ।
परमात्मतत्त्व
ही
संसाररूपसे
दीख रहा है ।
(शेष आगेके
ब्लॉगमें)
‒ ‘सब जग
ईश्वररूप है’
पुस्तकसे
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