(गत
ब्लॉगसे
आगेका)
किसीकी
ताकत नहीं कि असत्के
साथ चिपक जाय, असत्के
साथ रह जाय ।
कैसे रह
जायगा ? असत् तो
परिवर्तनशील
है । पर मेहनत
सब उसीके साथ
चिपकनेकी होती
है । कोरी
फालतू मेहनत
होती है ।
अपने
होनेपनमें
क्या फर्क
पड़ता है ?
क्रियाओं और
पदार्थोंके
परिवर्तनको
अपनेमें मान
लो तो आपकी
मरजी है,
होनेपनमें
कोई
परिवर्तन है
नहीं ।
आने-जानेवालोंमें
परिवर्तन है,
प्रकाशमें परिवर्तन
नहीं है । ऐसे
जो सबका प्रकाशक
है,
स्वयंप्रकाश
है,
प्रकाशस्वरूप
है, उसमें कभी
परिवर्तन
नहीं होता ।
जो है, उसमें
नहीं-पना
नहीं हो सकता
और जो नहीं है,
उसमें है-पना
नहीं हो सकता‒‘नासतो
विद्यते
भावो नाभावो
विद्यते सतः’ (गीता २/१६) । असत्की
सत्ता नहीं
होती और सत्का
अभाव नहीं
होता । सत् सदा
ज्यों-का-त्यों,
अटल, अखण्ड
रहता है और
उसमे सबकी
स्थिति
स्वतः है ।
परन्तु जो
मिटता है,
उसमें आप
स्थिति मान
लेते हैं कि
मैं धनी हूँ, मैं
रोगी हूँ, मैं
नीरोग हूँ,
मेरा सम्मान
है, मेरा
अपमान है ।
मिटनेवालेको आप पकड़
नहीं सकोगे,
चाहे
युग-युगान्तरोंतक
मेहनत कर लो !
अपनी
स्वतःसिद्ध
सत्तामें
स्थित हो जाओ
तो गुणातीतके
सब लक्षण
आपमें आ
जायँगे । वास्तवमें
वे लक्षण
आपमें हैं, पर
बदलनेवालेके
साथ मिल
जानेसे उनका
अनुभव नहीं
हो रहा है ।
श्रोता‒महाराजजी
!
क्रियाओंमें
भी तो वही
सत्ता है !
स्वामीजी‒क्रियाओंकी
सत्ता है ही
नहीं ।
क्रियाएँ तो
आरम्भ होती
हैं और नष्ट
होती हैं ।
मैंने
व्याख्यान
शुरू किया और
अब खत्म हो
रहा है ।
क्रिया और
पदार्थ सब
खत्म होनेवाले
हैं ।
श्रोता‒बिना
सत्ताके
क्रिया कैसे
हुई ? सत्ता है, तभी
तो क्रिया
हुई !
स्वामीजी‒तो
बस, सत्ता हुई
मूलमें,
क्रिया कहाँ
हुई ? यही तो हम
कहते हैं ! क्रियाका
अभाव होता है
। सत्ताका
अभाव कभी
होता ही नहीं
। बिलकुल
प्रत्यक्ष
बात है । इसका
कोई खण्डन कर
सकता ही नहीं ।
किसीकी ताकत
नहीं कि इसका
खण्डन कर दे । असत्की
सत्ता भी सत्के
अधीन है, सत्की
सत्ता भी सत्के
अधीन है । असत्की
स्वतन्त्र
सत्ता कभी
हुई नहीं, कभी
होगी नहीं,
कभी हो सकती
नहीं ।
इसलिये अपने
स्वरूपमें
स्थित रहो,
इधर-उधर चलो
ही मत । ‘समदुःखसुखः
स्वस्थः’‒सुख-दुःख
तो आते-जाते
हैं, इसमें आप
स्वतः ही सम हो
। अगर आप
सम नहीं हो तो
यह सुख हुआ और
यह दुःख हुआ‒इन
दोनोंका
ज्ञान कैसे
होता है ? सुख
आता है तो आप
सुखके साथ
मिलकर सुखी
हो जाते हो और
दुःख आता है
तो दुःखके
साथ मिलकर दुःखी
हो जाते हो ।
अगर आप सुखके
साथ मिल ही
जाते तो फिर
दुःखके साथ नहीं
मिल सकते और
दुःखके साथ
मिल जाते तो
फिर सुखके
साथ नहीं मिल
सकते । अतः
वास्तवमें
आप सुख-दुःख
दोनोंसे अलग
हो, पर भूलसे
अपनेको
सुख-दुःखके
साथ मिला हुआ
मानकर सुखी-दुःखी
हो जाते हो । सुख और दुःख
तो
बदलनेवाले
है, पर आप न
बदलनेवाले
हो । आपके
सामने कभी
सुख आता है,
कभी दुःख, कभी
मान होता है,
कभी अपमान;
कभी आदर होता
है, कभी
निरादर; कभी विद्वत्ता
आती है, कभी
मूर्खता; कभी
रोग आता है,
कभी नीरोगता;
पर आप वही
रहते हो । अगर
वही नहीं रहते
तो इन सबका
अलग-अलग
अनुभव कैसे
होता ? अगर अलग-अलग
अनुभव होता
है तो फिर
आपका अभाव
कैसे हुआ ? सुख-दुःख
आदिका अभाव
हुआ । अतः कृपानाथ
! आप इतनी कृपा
करो कि अपने
होनेपनमें
स्थित रहो ।
आपका होनापन
स्वतः सिद्ध
है,
कृतिसाध्य
नहीं है ।
उधर दृष्टि
नहीं डाली, बस
इतनी बात है !
(शेष आगेके
ब्लॉगमें)
‒ ‘नित्ययोगकी
प्राप्ति’
पुस्तकसे
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