(गत
ब्लॉगसे
आगेका)
श्रोता‒महाराजजी,
अन्तःकरणमें
राग-द्वेष
रहते हुए ही
क्रियाएँ
होती हैं !
स्वामीजी‒बिलकुल
क्रियाएँ
होती हैं
राग-द्वेष
रहते हुए,
परन्तु आपका
कभी अभाव होता
है क्या ?
कितना ही
राग-द्वेष हो
जाय, कितना ही
हर्ष-शोक हो
जाय, आपमें
कुछ फर्क
पड़ता है क्या ?
श्रोता‒फर्क
न पड़नेपर भी
साधकमें
घबराहट रहती
है कि राग-द्वेष
तो हो रहे हैं !
स्वामीजी‒आप
राग-द्वेषको
पकड़ लेते हो,
बहते हुए को
पकड़ लेते हो,
तब घबराहट
होती है । राग रहता
नहीं, द्वेष
रहता नहीं,
वैर रहता नहीं,
सुख रहता
नहीं, दुःख
रहता नहीं; जो
रहता नहीं,
उसको पकड़
लेते हो । आप
उसको पकड़ो मत ।
आप तो
वैसे-के-वैसे
रहते हो । अगर
वैसे नहीं
रहते तो
सुख-दुःखको,
राग और द्वेषको
आप अलग-अलग
कैसे जानते
हो । रागके
समय रहते हो,
वही द्वेषके
समय रहते हो;
द्वेषके समय
रहते हो, वही
रागके समय
रहते हो, तब
दोनोंका
अनुभव होता
है । जिसको
दोनोंका
अनुभव होता
है, उसमें
दोनों कहाँ
हैं ?
यह एक
वहम है कि
अन्तःकरण
शुद्ध
होनेसे
कर्ता शुद्ध
हो जायगा । सभी
कारक
क्रियाके
होते हैं ।
कर्ता, कर्म,
करण,
सम्प्रदान,
अपादान,
अधिकरण‒ये
सब क्रियाके
हैं,
प्रकृतिके
हैं । यह
प्रकृति
जिससे
प्रकाशित
होती है, वह
ज्यों-का-त्यों
रहता है । अतः
आप
राग-द्वेषसे
डरो मत । ये तो
मिटनेवाले
हैं,
आने-जानेवाले
हैं । असत् तो
मिट रहा है ।
किसीकी ताकत
नहीं कि असत्को
स्थिर रख सके
और सत्का विनाश
कर सके । असत्
तो टिक नहीं
सकता और सत् मिट
नहीं सकता । असत्में
किसीकी
स्थिति हुई
नहीं, होगी
नहीं और हो सकती
नहीं; एवं सत्से
अलग कोई हुआ
नहीं, होगा
नहीं और हो
सकता नहीं ।
श्रोता‒असत्में
स्थित होकर ही
तो भोक्ता बनता
है !
स्वामीजी‒बिलकुल,
इसमें कहना
ही क्या है ! वह असत्में
स्थिति मान
लेता है,
स्थित होता
नहीं । अगर
आपकी स्थिति सत्में
है तो फिर असत्में
स्थिति कैसे
हुई ? अगर असत्में
स्थिति है तो
फिर सत्में
स्थिति कैसे
हुई ? रागमें
आपकी स्थिति
है तो द्वेष
कैसे होगा ? और
द्वेषमें
आपकी स्थिति
है तो राग
कैसे हुआ ? राग
और द्वेष तो
संसारके हैं,
उसमें आप
लिप्त हो जाते
हो । आपमें न
राग है, न
द्वेष है, न
हर्ष है, न शोक
है । बड़ी सीधी-सरल
बात है ।
इसमें
कठिनताका
नामोनिशान
ही नहीं है !
श्रोता‒फिर गडबड़ी
कहाँ है ?
स्वामीजी‒असत्को
आप छोड़ना
नहीं चाहते‒यहाँ
ही गडबड़ी है !
संयोगजन्य
सुख आपने मान
रखा है, यहाँ
गडबड़ी है ।
श्रोता‒असत्का
त्याग कैसे
हो ?
स्वामीजी‒अरे
! असत्को आप
पकड़ सकते ही
नहीं । किसीकी
ताकत नहीं कि असत्को
पकड़ ले । असत्का
त्याग करना
है, त्याग तो
अपने-आप हो
रहा है !
सुख
और दुःख, राग
और द्वेष‒दोनोंका
जिसको अनुभव
होता है,
उसमें न सुख
है, न दुःख है, न
राग है, न
द्वेष है, न
हर्ष है, न शोक
है । जो इन
सबसे रहित है,
वह आपका स्वरूप
है । जिसमें
राग-द्वेष
आदि होते हैं,
वह आपका स्वरूप
नहीं है । सीधी
बात है !
(शेष आगेके
ब्लॉगमें)
‒ ‘नित्ययोगकी
प्राप्ति’
पुस्तकसे
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