(गत
ब्लॉगसे
आगेका)
राग-द्वेष,
हर्ष-शोक आदि
जो दो चीजें
हैं, वे आपमें
नहीं हैं । वे
बेचारी तो
आपके सामने
गुजरती हैं ।
कभी राग हो
गया, कभी द्वेष
हो गया, कभी
हर्ष हो गया,
कभी शोक हो
गया, कभी
निन्दा हो
गयी, कभी
प्रशंसा हो गयी
। ये तो
होनेवाले
हैं और
मिटनेवाले
हैं । अब
होनेवाले और
मिटनेवालेको
पकड़कर आप
सुखी-दुःखी होते
हैं ! ये तो
आपके सामने आते
हैं, बीतते
हैं, गुजरते
हैं । आप
ज्यों-के-त्यों
रहते हो । आपमें
फर्क पड़ता
नहीं, आप
बदलते नहीं ।
जो बदलता
नहीं, वह आपका
स्वरूप है और
जो बदलता है,
वह
प्रकृतिका
है । इतनी सी
बात है,
लम्बी-चौड़ी
बात ही नहीं
है । कृपानाथ !
कृपा करो, आप अपने
स्वरूपमें स्थित
रहो ।
स्वरूपमें
आपकी स्थिति
स्वतः है । आगन्तुक
सुख-दुःखमें,
आगन्तुक
राग-द्वेषमें
आप अपनी
स्थिति
जबरदस्ती
करते हो, और
उसमें आपकी
स्थिति कभी
रह सकेगी
नहीं । आप
कितना ही
उद्योग कर लो,
न रागमें, न
द्वेषमें, न
सुखमें, न
दुःखमें
आपकी स्थिति
रह सकेगी । कारण
कि आप इनके
साथ नहीं हो,
ये आपके साथ
नहीं है । आप
कहते हैं कि
मिटता नहीं,
हम कहते हैं
कि टिकता
नहीं !
श्रोता‒इनमें
अपनी जो
स्थिति मान
रखी है, उस मान्यतासे
छूटनेका
साधन क्या है ?
स्वामीजी‒साधन
यही है कि
नहीं
मानेंगे । जो
भूलसे मान
लिया, उसको
नहीं मानना
ही साधन है । कितनी
सीधी-सरल बात
है ! कठिनताका
नाम-निशान ही
नहीं है । निर्माण
करना हो,
बनाना हो,
उसमें कहीं
कठिनता होती
है, कहीं
सुगमता होती
है । जो
ज्यों-का-त्यों
विद्यमान है,
उसको
जाननेमें
क्या कठिनता
है ?
श्रोता‒जिस समय
राग-द्वेष
आते हैं, उस
समय तो प्रभावित
हो जाते हैं !
स्वामीजी‒तो
प्रभावित
होना आपकी
गलती हुई,
राग-द्वेषकी थोड़े
ही गलती हुई !
आप राग और
द्वेष‒दोनोंको
जानते हो और
दोनोंसे अलग
हो । अब आप
अलग होते हुए
भी प्रभावित
हो जाते हो, मिल
जाते हो तो यह
गलती मत करो ।
श्रोता‒उसका
असर पड़ता है ।
स्वामीजी‒आप
उसको आदर
देते हो तो
असर पड़ता है । आदर दोगे
तो असर पड़ेगा
ही ! ये तो
आगन्तुक हैं ।
गीता साफ कह
रही है‒‘आगमापायिनोऽनित्यास्तांस्तितिक्षस्व’
(२/१४) ‘ये
आने-जानेवाले
और अनित्य
हैं, इनको सह
लो, विचलित मत
होओ ।’ आप
मुफ्तमें
विचलित होते
हो, पत्थर
उछालकर सिर
नीचे रखते हो !
इसमें
दूसरेका
क्या दोष है ?
श्रोता‒यह
सहना
अभ्याससे
आयेगा क्या ?
स्वामीजी‒आप
सहते ही हो,
नहीं तो क्या
करोगे ? सुख आ
जाय, उस समय आप
क्या करोगे ?
दुःख आ जाय, उस
समय आप क्या करोगे
? जबरदस्ती
तो सहते ही हो,
जानकर सह लो
तो निहाल हो
जाओ ! नहीं तो
भोगना पड़ेगा
ही । नहीं
सहोगे तो
कहाँ जाओगे ?
चाहे सुख आये,
चाहे दुःख
आये, आप तो
ज्यों-के-त्यों
ही रहते हैं ।
यं हि न
व्यथयन्त्येते
पुरुषं
पुरुषर्षभ ।
समदुःखसुखं
धीरं
सोऽमृतत्वाय
कल्पते ॥
(गीता २/१५)
‘हे
पुरुषोंमें
श्रेष्ठ
अर्जुन !
सुख-दुःखमें सम
रहनेवाले जिस
धीर
मनुष्यको ये
मात्रास्पर्श
(पदार्थ)
व्यथा नहीं
पहुँचाते, वह
अमर हो जाता
है ।’
(शेष आगेके
ब्लॉगमें)
‒ ‘नित्ययोगकी
प्राप्ति’
पुस्तकसे
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