वास्तवमें
कर्मयोग
क्या है‒इस
बातको
जाननेवाले
बहुत कम है । तत्त्वज्ञ
जीवन्मुक्त
महापुरुषका
मिलना कठिन
है, पर
कर्मयोगके
तत्त्वको
जाननेवाला
मिलना उससे
भी ज्यादा
कठिन है ! लगभग पाँच
हजार वर्ष
पहले भगवान्ने
कहा था कि
बहुत समय बीत
जानेके कारण
वह कर्मयोग
लुप्तप्रायः
हो गया‒‘स
कालेनेह
महता योगो
नष्टः
परन्तप’ (गीता
४/२) । अब तो यह
बहुत ही
लुप्त हो गया
है । ग्रन्थोंमें
कर्मयोगका
विवेचन नहीं
आता ।
पढ़ाईमें भी
कर्मयोगका
विवेचन नहीं
आता ।
सत्संगमें
भी
कर्मयोगका
विवेचन नहीं
मिलता । इसका
अध्ययन
लुप्तप्रायः
है । इसलिये
कर्मयोगकी
बात कठिन
मालूम देती
है । कर्मयोगका
विवेचन
करनेमें कई
घण्टे लग
सकते हैं ।
मैं उसकी
थोड़ी सार-सार
बात बताता
हूँ ।
सबसे
पहली बात यह
है कि चाहे
‘कर्मयोग’ कह
दो, चाहे
‘निष्काम
कर्म’ कह दो, एक
ही बात है । ‘निष्काम
कर्मयोग’
शब्द बनता ही
नहीं । इसका
अर्थ ठीक
नहीं बैठता ।
परन्तु
अच्छे-अच्छे
समझदार भी
‘निष्काम कर्मयोग’
कह देते हैं !
इसलिये यह
बात कहनेमें
जरा कठिन
पड़ती है कि
‘निष्काम
कर्मयोग’ कहना
बिलकुल गलत
है । निष्काम
कर्म कह दो या
कर्मयोग कह
दो, दोनों ठीक
हैं । पर
‘निष्काम
कर्मयोग’
कैसे बनेगा ?
परन्तु अब क्या
करें ? किसको
कहें ?
हमें
एक बड़ा दुःख
है कि भाइयोंमेंसे
और
बहनोंमेंसे
कोई भी इस
तत्त्वको जाननेके
लिये
जिज्ञासु
नहीं है,
जाननेके लिये
तैयार नहीं
है । माननेके
लिये मैं
आग्रह करता
ही नहीं । कम-से-कम
यह है क्या‒इसको
जानो तो सही ।
मानो या मत
मानो, आपकी
मरजी ।
परन्तु
तत्त्व क्या
है‒ऐसी भीतर
लगन तो लगे । मेरी
धारणामें इस
तत्त्वको
समझनेमें आप
अयोग्य नहीं
हैं,
अनधिकारी
नहीं हैं । आप
सब-के-सब समझ
सकते हैं ।
परन्तु
समझना चाहे
ही नहीं, उसका
क्या करें ?
योगकी
परिभाषा
गीताने दो
जगह की है‒समताका
नाम योग है‒‘समत्वं
योग उच्यते’
(२/४८) और
दुःखोंके
संयोगका
सर्वथा वियोग
हो जाय, इसका
नाम योग है‒‘तं विद्याद्
दुःखसंयोगवियोगं
योगसञ्ज्ञितम्’
(६/२३) । सम
क्या है ? सम
हैं ब्रह्म‒‘निर्दोषं ही
समं ब्रह्म’
(५/१९) ।
दुःखोंका
अत्यन्त
अभाव कब होता
है ? परमानन्दकी
प्राप्ति
होनेपर होता
है । कर्मयोग,
ज्ञानयोग,
भक्तियोग और
हठयोग, राजयोग,
मन्त्रयोग
आदि कई योग
हैं । उन सब
योगोंका
तात्पर्य है
कि
परमात्माके
साथ जो
नित्ययोग
अर्थात्
नित्य-सम्बन्ध
है, उसकी
जागृति हो
जाय ।
परमात्माका
जीवके साथ सदासे
नित्ययोग है । कर्मयोग
उसको कहते
हैं, जिसमें
कर्म संसारके
लिये हो जाय
और योग
परमात्माके
साथ हो जाय । अब उसको चाहे
निष्कामभावसे
कर्म करना कह
दो, चाहे
कर्मयोग कह
दो ।
श्रोता‒कर्मयोगसे
परमात्मतत्त्वकी
प्राप्ति
कैसे होगी ?
स्वामीजी‒अब
ध्यान दें ।
आपकी शंका है
कि हम कर्म तो
संसारके हितके
लिये करते
हैं, फिर इससे
परमात्माकी
प्राप्ति
कैसे हो जायगी
? जैसे
बद्रीनारायण
जा रहे हैं तो
द्वारिका कैसे
पहुँच
जायँगे ? कर
किधर रहे हैं
और प्राप्ति
किधर हो रही
है‒ऐसा कहीं
होता है ? जा
रहे हैं
उत्तरमें और
पहुँच जायँ
दक्षिणमें
अथवा जा रहे
हैं
दक्षिणमें
और पहुँच जाय
उत्तरमें‒यह
कैसे होगा ?
सम्भव ही
नहीं ।
इसलिये शंका
होती है ।
बहुत ठीक
शंका है ।
(शेष
आगेके
ब्लॉगमें)
‒ ‘भगवान्से
अपनापन’
पुस्तकसे
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