(गत
ब्लॉगसे
आगेका)
सबसे
पहले एक बात
बताता हूँ, उस
तरफ आप खयाल
करें ।
परमात्मतत्त्व
सब जगह है कि
नहीं ? इसके
उत्तरमें जो
भगवान्को
मानते हैं, वे
सब कहेंगे कि
परमात्मा सब
जगह हैं । यह
मूल चीज है ।
इस विषयमें
चार बातें
कहता हूँ‒ १.
परमात्मा सब
जगह हैं, २.
परमात्मा सब
समयमें हैं, ३.
परमात्मा सब
वस्तुओंमें
हैं और ४. परमात्मा
सबके हैं । यह नहीं है कि
मेरे तो वे
कोई नजदीक
पड़ते हों और
आपसे कोई दूर
पड़ते हों ।
परमात्मा
पापी-से-पापी,
दुराचारी-से-दुराचारीके
भी उतने ही
नजदीक पड़ते
हैं, जितने
किसी
सन्त-महात्मा,
जीवन्मुक्त,
तत्त्वज्ञ,
भगवत्प्रेमी
आदिके नजदीक
हैं ।
परमात्मा
अपनी तरफसे
दूर नहीं हैं,
जीव ही उनसे
विमुख हो
जाता है ।
परमात्मा
सब जगह हैं तो
यहाँ हैं कि
नहीं ? अगर परमात्मा
यहाँ नहीं
हैं तो वे सब
जगह हैं‒यह
नहीं कह सकते ।
यहाँके सिवा
सब जगह हैं‒ऐसा
कह सकते हैं,
पर फिर भी ‘सब
जगह’ शब्द
प्रयोगमें
नहीं ले सकते ।
ऐसे ही
परमात्मा सब
समयमें हैं
तो इस समय हैं कि
नहीं ? अगर इस
समय नहीं हैं
तो वे सब
समयमें हैं‒यह
कहनेकी
किसीमें
हिम्मत नहीं
है । ऐसे ही
परमात्मा
सम्पूर्ण
वस्तुओंमें
हैं तो
हमारेमें
हैं कि नहीं ?
शरीर, प्राण,
इन्द्रियाँ,
मन, बुद्धि और
अहम् (मैं
हूँ)‒इन
सबमें
परमात्मा
हैं कि नहीं ?
अगर इनमें नहीं
हैं तो
परमात्मा
सम्पूर्ण
वस्तुओंमें
हैं‒यह कहना
कभी नहीं बन
सकता । मैं
जहाँ हूँ,
वहाँ परमात्मा
नहीं हैं‒ऐसा
कह सकते हो
क्या ? किसी भी
आस्तिककी यह
कहनेकी
हिम्मत नहीं
होगी कि
मेरेमें
परमात्मा नहीं
हैं ।
परमात्मा
सबके हैं तो
मेरे भी हैं ।
अगर वे मेरे
नहीं हैं तो
वे सबके हैं‒यह
कहना बनता ही
नहीं । सब जीव
उनके अंश हैं‒‘ममैवांशो
जीवलोके’
(गीता १५/७),
ईश्वर अंस
जीव अबिनासी
(मानस उत्तर॰ ११७/१) ।
भगवान्
कहते हैं कि
मैं
प्राणिमात्रका
सुहृद् हूँ‒ ‘सुहृदं
सर्वभूतानाम्’
(गीता ५/२९), वे
किसी एकके भी
सुहृद् न हों,
यह नहीं हो
सकता । जो सब
जगह हैं, सब
समयमें हैं,
सब
वस्तुओंमें
हैं और सबके
हैं‒ऐसे
परमात्माको
प्राप्त
करनेके लिये
क्या करें ?
किसी भी एक
योगका
अनुष्ठान
करें । यहाँ
प्रसंग
कर्मयोगका
है, इसलिये अब
कर्मयोगकी
बात कहता हूँ ।
कर्मोंसे
परमात्माका
योग
(नित्य-सम्बन्ध)
कब होगा ? जब हम
अपने लिये
कोई कर्म
नहीं करें । खाना-पीना,
उठना-बैठना,
सोना-जागना,
चिन्तन करना,
भजन करना और
समाधि लगाना
भी अपने लिये
बिलकुल न
करें, तब
कर्मयोग
होगा, नहीं तो
कर्मभोग होगा
। अपने
लिये कर्म
करनेसे भोग
होता है, योग
नहीं होता । यह मूल बात है ।
अपने
लिये कोई
कर्म नहीं
करना है‒यह
सुनकर आदमी अटक
जाता है कि
अपने लिये
नहीं करें तो
किसके लिये
करें ? एक बात
मैं कहता हूँ,
अगर आपके
विरुद्ध पड़े
तो क्षमा
करें । जप
भी अपने लिये
नहीं, तप भी
अपने लिये
नहीं, समाधि
भी अपने लिये
नहीं,
प्रार्थना
भी अपने लिये
नहीं‒इनको
अपने लिये
नहीं करना है ।
कारण कि
मूलमें हम
परमात्माके
अंश हैं‒
ईस्वर
अंस जीव अबिनासी
।
चेतन
अमल सहज सुख
रासी ॥
(मानस,
उत्तर॰ ११७/२)
जो
चेतन, मलरहित
और सुखरासी
है, उसके लिये
क्या करना
पड़ेगा ? उसके
लिये कुछ
नहीं करना है ।
(शेष आगेके
ब्लॉगमें)
‒ ‘भगवान्से
अपनापन’
पुस्तकसे
|