(गत
ब्लॉगसे
आगेका)
हम
अपने लिये
करते हैं‒यही
बन्धन है । यह बात थोड़ी
कठिन पड़ती है,
हरेककी
समझमें नहीं
आती । परन्तु
अपने लिये
करेंगे तो
बन्धन होगा ।
कैसे बन्धन
होगा ? कुछ भी
कर्म करें, उस
कर्मका आरम्भ
होगा कि नहीं ?
और उसकी
समाप्ति
होगी कि नहीं ?
कोई भी कर्म
किया जायगा
तो उसका
आरम्भ होगा
और समाप्ति
होगी । उसका
जो फल मिलेगा,
उसका भी
संयोग होगा
और वियोग
होगा । वह
आपके लिये
उपयोगी कैसे
होगा, जबकि आप
नित्य
रहनेवाले हो ?
खूब
गहरी रीतिसे
ध्यान दो । अपने लिये
कुछ भी नहीं
करना है‒यह
वेदान्तका
भी
सिद्धान्त
है,
अद्वैतमार्गका
भी
सिद्धान्त
है,
भक्तिमार्गका
भी सिद्धान्त
है । जितने
दार्शनिक
हैं, उनका भी
यह मत है । जीवात्मा
परमात्माका
साक्षात्
अंश है । वह
कर्मोंसे न
बढ़ता है, न
घटता है‒ ‘कर्मणा
न वर्द्धते
नो कनीयान् ।’ वह
ज्यों-का-त्यों
रहता है । आप
चाहते हो कि
वह कर्मोंसे
हमारेको मिल
जाय, यहीं
गलती होती है ।
हम जो कर्म
करें,
दूसरोंके
लिये करें ।
संसारके
पदार्थ और
क्रियामात्र
दूसरोंके लिये
हैं; क्योंकि
पदार्थ और
क्रिया‒ये
दोनों
प्रकृतिके
हैं,
परमात्माके
नहीं । परमात्मा
पदार्थ और
क्रियासे
रहित है ।
परमात्मा
सब
वस्तुओंमें
हैं और सब
क्रियाओंमें
हैं । सबमें
रहते हुए भी
परमात्मा
सबसे परे हैं,
निर्लिप्त
हैं ।
परमात्मामें
लिप्तता है
ही नहीं । हम
कर्म करते
हैं और फल
चाहते हैं‒यही
गुणोंका संग
है, जिससे
ऊँच-नीच
योनियोंमें
जन्म लेना
पड़ता है (गीता
१३/२१) ।
कर्मका फल
विनाशी ही
होता है,
अविनाशी
नहीं । फल वही
होता है, जो
पहले नहीं
होता,
प्रत्युत पैदा
होनेवाला और
नष्ट
होनेवाला
होता है । अतः
परमात्मतत्त्व
कर्मका फल
नहीं हो सकता ।
ज्ञानसे
जो बोध होता
है, वह फल नहीं
है ।
भक्तिमें जो
प्रेम होता
है, वह फल नहीं
है ।
कर्मयोगसे
जो योग होता
है, वह फल नहीं
है । फल कभी भी
होगा,
नाशवान् ही
होगा । फल
अविनाशी हो
ही नहीं सकता,
कभी सम्भव ही
नहीं । फिर
कर्म
किसलिये
किया जाय ?
संसारमें जो
राग है, उस
रागकी
निवृत्तिके
लिये कर्म
किया जाय ।
कर्म रागकी
पूर्तिके
लिये भी किया
जाता है और
रागकी
निवृत्तिके
लिये भी ।
कर्मका
आरम्भ केवल
रागकी
निवृत्तिके
लिये किया जाय
। हमने जड़के
साथ जो
सम्बन्ध
जोड़ा है, उस
सम्बन्धके
विच्छेदके
लिये कर्म
किया जाय । सम्बन्ध-विच्छेद
तभी होता है,
जब कर्म
दूसरोंके
लिये किया
जाय । अपने
लिये कर्म
किया जायगा
तो
सम्बन्ध-विच्छेद
नहीं होगा ।
स्थूलशरीरसे
आप दूसरोंकी
सेवा करो,
स्थूल पदार्थोंका
दान करो, पर
उसका फल मत
चाहो । कारण
कि हमारी न
क्रिया है और
न पदार्थ है,
फिर क्रिया
करना और
दान-पुण्य
करना हमारे
लिये कैसे
होगा ? ऐसे ही
सूक्ष्मशरीरसे
यह चिन्तन
किया जाय कि
प्राणिमात्रका
हित कैसे हो ?
सबका कल्याण
कैसे हो ? सबका
उपकार कैसे
हो ? सबकी सेवा
कैसे बने ? अब
रही
कारणशरीरकी
बात !
कारणशरीर
अविद्या
कहलाता है और
उसमें
स्वभाव
मुख्य रहता
है । इससे आगे
हम कुछ नहीं
जानते‒इसका
नाम
कारणशरीर है ।
स्थूलशरीरमें
जाग्रत्-अवस्था,
सूक्ष्मशरीरमें
स्वप्न-अवस्था,
और कारणशरीरमें
सुषुप्ति-अवस्था
(गाढ़ निद्रा)
होती है । ये तीनों
अवस्थाएँ
प्रकृतिके
संगसे होती
हैं ।
(शेष आगेके
ब्लॉगमें)
‒ ‘भगवान्से
अपनापन’
पुस्तकसे
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