(गत
ब्लॉगसे
आगेका)
समाधि
कारणशरीरकी
होती है ।
समाधिमें
किंचिन्मात्र
भी स्फुरणा
नहीं होती,
एकदम
स्थिरता
रहती है । यह
समाधि भी
हमारे लिये
नहीं है, तभी
कर्मयोग होगा
। कारण कि
समाधि भी
कर्म है ।
जैसे ‘गच्छति’ क्रिया है, ‘चिन्तयति’ क्रिया है, ‘ध्यायते’ क्रिया है,
ऐसे ही ‘समाधीयते’ भी क्रिया है ।
करना भी
क्रिया है और
न करना भी
क्रिया है । भगवान्
कहते हैं‒‘नैव तस्य
कृतेनार्थो
नाकृतेनेह
कश्चन’ (गीता ३/१८
) । अर्थात्
कर्मयोगसे
सिद्ध हुए
महापुरुषका
इस संसारमें
न तो कर्म
करनेसे कोई
प्रयोजन
रहता है और न कर्म
न करनेसे ही
कोई प्रयोजन
रहता है । अतः
करना भी
हमारे लिये
नहीं और न
करना भी हमारे
लिये नहीं ।
शरीर
और
वस्तुओंके
द्वारा
दूसरोंका
हित किया जाय
तो शरीर और
वस्तुओंकी
शुद्धि होती
है । ऐसे ही
दूसरोंके
हितका
चिन्तन किया
जाय तो मन-बुद्धिकी
शुद्धि होती
है । भगवान्
कहते हैं कि
जो
प्राणीमात्रके
हितमें रत
होते हैं, वे
मेरेको
प्राप्त
होते हैं‒
ते
प्राप्नुवन्ति
मामेव
सर्वभूतहिते
रताः ।
(गीता
१२/४)
लभन्ते
ब्रह्मनिर्वाणमृषयः
क्षीणकल्मषाः
।
छिन्नद्वैधा
यतात्मानः
सर्वभूतहिते
रताः ॥
(गीता ५/२५)
‒सगुण
और निर्गुण‒दोनोंकी
प्राप्तिके
लिये ‘सर्वभूतहिते
रताः’ पद आया
है । दूसरोंके
हितके लिये
हम कितना कर
सकते हैं‒इसका
कोई ठेका
नहीं है ।
आपकी रति,
रुचि, प्रीति
दूसरोंके
हितमें हो ।
परहित बस
जिन्ह के
मन माहीं ।
तिन्ह
कहूँ जग
दुर्लभ कछु
नाहीं ॥
(मानस,
अरण्य॰ ३१/९)
जिनके
हृदयमें
दूसरेके
हितका भाव
रहता है, उनके
लिये कुछ भी
करना बाकी
नहीं रहता ।
गीध
अधम खग आमिष
भोगी ।
गति
दीन्हीं जो जाचत
जोगी ॥
(मानस,
अरण्य॰ ३३/२)
योगी
जिस गतिके
लिये याचना
करते हैं, वही
गति भगवान्ने
गीधको दे दी !
वह (गीधराज
जटायु)
चतुर्भुजरूप
धारण करके
हरिरूपसे
वैकुण्ठको
गया । उसके
लिये भगवान्ने
कहा‒‘तात
कर्म निज तें
गति पाई’ (मानस,
अरण्य॰ ३१/८) ।
अर्थात्
इसमें मेरा
कोई एहसान
नहीं है, अपने
कर्मसे
तुमने यह गति
पाई है । कर्म
क्या ?
सीताजीकी
रक्षाके
लिये रावणसे
युद्ध किया ।
सीताजी जब
अपनी
रक्षाके
लिये
पुकारने
लगीं, तब उसने
देखा‒ओ हो ! ये
तो
रघुकुलतिलक
श्रीरामकी
स्त्री है और
दुष्ट लिये
जा रहा है । वह
जोरसे बोला‒बेटी
! तू चिन्ता मत
कर, मैं अभी
आया ! जगज्जननी
सीताजीको वह
बेटी कहकर
पुकारता है !
इसका कारण था
कि वह
दशरथजीका
मित्र था ।
दशरथजीकी
पुत्रवधू
मेरी
पुत्रवधू ही
हुई, मेरी
बेटी ही हुई‒इस
भावसे वह
बेटी कहकर
बोला ।
रावणसे उसने
ऐसी लड़ाई की
कि रावणको
मूर्च्छा आ
गयी !
लड़ते-लड़ते जब
रावणने
तलवारसे
उसके पंख काट
दिये तो वह
नीचे गिर पड़ा;
क्योंकि
पक्षीके पास
पंखोंका ही
बल रहता है ।
इस प्रकार
उसने
दूसरेके
हितके लिये
अपने-आपकी
आहुति दे दी,
इसलिये उसको
परमगति
प्राप्त हुई ।
भगवान्
इसमें
(परमगति
देनेमें)
अपना कोई
एहसान नहीं मानते
।
(शेष आगेके
ब्लॉगमें)
‒ ‘भगवान्से
अपनापन’
पुस्तकसे
|