(गत ब्लॉगसे
आगेका)
कर्म
करनेकी सब सामग्री
संसारकी है । यह
पांचभौतिक स्थूलशरीर
स्थूल-सृष्टिका
एक अंश है, सूक्ष्मशरीर
समष्टि सूक्ष्म-सृष्टिका
एक अंश है और कारणशरीर
कारण-सृष्टिका
एक अंश है । संसारकी सामग्रीसे
कर्म करके अपने
लिये चाहते हैं‒यही
महान् अनर्थका
हेतु है । यही असत्का,
नाशवान्का संग
है, जिससे जन्म-मरण
होता है ।
एक
बहुत ही विलक्षण
बात बताऊँ ! आपके
पास कितनी योग्यता
है, कितनी सामर्थ्य
है, कितने पदार्थ
हैं, कितनी विद्या
है‒इससे कुछ फर्क
नहीं पड़ता । बड़े-से-बड़ा
विद्वान और मूर्ख-से-मूर्ख
भी अपने लिये कोई
कर्म न करे तो मुक्त
हो जायगा ! इसमें
योग्यता आदि कोई
काम नहीं देगी;
क्योंकि वह तो
उत्पत्ति-विनाशवाली
है, आने और जानेवाली
है; अतः उसके द्वारा
नित्य रहनेवाला
तत्त्व थोड़े ही
मिलेगा ! आपके पास
बढ़िया या घटिया
कैसी सामग्री
है, कितनी योग्यता
है, आप कैसे अधिकारी
हैं‒इसकी कोई
आवश्यकता नहीं
है । इसकी आवश्यकता
वहाँ होती है, जहाँ
योग्यता काम करती
है, विद्या काम
करती है, सामग्री
काम करती है । ये
चीजें संसारमें
काम आती हैं । संसारमें
आपकी जैसी योग्यता,
सामर्थ्य होगी,
वैसा मिलेगा ।
संसारमें अधिकार
योग्यताके अनुसार
मिलता है । आप कर्म
करोगे, योग्यता
लाओगे, उसके अनुसार
आपको संसारका
फल मिलेगा । परन्तु
भगवत्प्राप्तिमें
इन चीजोंकी कोई
आवश्यकता नहीं
है । वहाँ केवल
त्यागकी आवश्यकता
है ।
आपके
सामने कैसी ही
परिस्थिति हो,
चाहे सौम्य हो
या घोर; उसीमें
भगवत्प्राप्ति
हो सकती है । अर्जुनने
भी कह दिया कि मेरेको
युद्ध-जैसे घोर
कर्ममें क्यों
लगाते हैं‒‘घोरे कर्मणि
किं नियोजयसि’
(गीता ३/१) ? युद्धमें
दिनभर मनुष्योंका
गला काटनेका लक्ष्य
रहता है । ऐसे हिंसात्मक
कर्मको करते हुए
भी मनुष्यका कल्याण
हो सकता है ! भगवान्
कहते हैं‒
सुखदुःखे
समे कृत्वा लाभालाभौ
जयाजयौ ।
ततो युद्धाय
युज्यस्व नैवं पापमवाप्स्यसि
॥
(गीता २/३८)
(जय-पराजय,
लाभ-हानि और सुख-दुःखको
समान करके फिर
युद्धमें लग जा
। इस प्रकार युद्ध
करनेसे तू पापको
प्राप्त नहीं
होगा ।) पापका
निवास विषमतामें
है, समतामें नहीं
। समताका नाम योग
है । इसलिये समतामें
स्थित होकर युद्ध
करनेसे पाप नहीं
लगता । वास्तवमें
जय-पराजय, लाभ-हानि
और सुख-दुःखको
समान करना नहीं
है, प्रत्युत वे तो स्वाभाविक
ही समान हैं । जैसे, सुख आते हुए
अच्छा लगता है,
जाते हुए बुरा
लगता है और दुःख
आते हुए बुरा लगता
है, जाते हुए अच्छा
लगता है । एक तरफ
सुख अच्छा और एक
तरफ दुःख अच्छा
। एक तरफ सुख बुरा
और एक तरफ दुःख
बुरा । सुख और दुःखमें
क्या भेद हुआ ? इन दोनोंमें
जो राग-द्वेष कर
लेते हैं, बस कर्मयोगमें
यही खास बाधा है
। राग-द्वेषके
कारण ही मनुष्य
कर्मोंसे लिप्त
हो जाता है, बँध
जाता है ।
कर्मयोगकी
महिमा गाते हुए
भगवान् पाँचवें
अध्यायके तीसरे
श्लोकमें कहते
हैं‒‘जो न
किसीसे द्वेष
करता है और न किसीकी
इच्छा करता है,
वह नित्य-संन्यासी
समझनेयोग्य है;
क्योंकि द्वन्द्वोंसे
रहित मनुष्य सुखपूर्वक
संसार-बन्धनसे
मुक्त हो जाता
है ।’ जो राग-द्वेष
नहीं करता; वह कर्मयोगी
नित्य-संन्यासी
है । लाभ-हानि, सुख-दुःख,
मान-अपमान, निन्दा-स्तुति,
जीना-मरना आदि
द्वन्द्वोंसे
रहित होनेसे वह
सुखपूर्वक बन्धनसे
मुक्त हो जाता
है । सभी द्वन्द्व
प्रकृतिमें है
। द्वन्द्व-रहित
कब होता है ? जब वह
अपने लिये किंचिन्मात्र
भी कर्म नहीं करता
।
(शेष
आगेके ब्लॉगमें)
‒ ‘भगवान्से
अपनापन’ पुस्तकसे
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