(गत
ब्लॉगसे
आगेका)
जाग्रत्,
स्वप्न आदि
अवस्थाओंकी
तरह बाल, युवा
और वृद्ध‒ये
तीनों भी
अवस्थाएँ
हैं ।
बाल्यावस्थामें
युवावस्था-वृद्धावस्थाका
अभाव है,
युवावस्थामें
बाल्यावस्था-वृद्धावस्थाका
अभाव है और
वृद्धावस्थामें
बाल्यावस्था-युवावस्थाका
अभाव है ।
परन्तु अपना
अभाव किसी भी
अवस्थामें
नहीं है और
अपनेमें
सम्पूर्ण
अवस्थाओंका
अभाव है ।
इसको यों भी
कह सकते हैं कि
जैसे अभी
युवावस्थामें
बाल्यावस्था-वृद्धावस्थाका
अभाव है, ऐसे
ही स्वयंमें
युवावस्थाका
भी अभाव है ।
जो सम्पूर्ण
अवस्थाओंमें
रहनेवाला है,
उसमें
अवस्था कहाँ
है ? मणियोंकी
मालामें
सूतकी तरह
सम्पूर्ण
अवस्थाओंमें
अपनी सत्ता
अनुस्यूत है ।
जैसे सूतमें
मणियाँ नहीं
हैं, ऐसे ही
सत्ता
(स्वरूप) में
अवस्थाएँ
नहीं हैं ।
जैसे
उपर्युक्त
अवस्थाएँ
शरीरमें
होती है, ऐसे
ही उत्पत्ति,
स्थिति और
प्रलय‒ये
तीन
अवस्थाएँ
संसारमें
होती हैं ।
उत्पत्ति-अवस्थामें
स्थिति और
प्रलयका अभाव
है,
स्थिति-अवस्थामें
उत्पत्ति और
प्रलयका अभाव
है तथा
प्रलय-अवस्थामें
उत्पत्ति और
स्थितिका अभाव
है । परन्तु परमात्मतत्त्वमें
सम्पूर्ण
अवस्थाओंका
सदा अभाव है ।
व्यष्टि
(शरीर) में
स्वयंकी
सत्ता है और
समष्टि
(संसार) में
परमात्मतत्त्वकी
सत्ता है । व्यष्टि
और समष्टिका
भेद भी
कल्पित है
तथा स्वयं और
परमात्मतत्त्वका
भेद भी
कल्पित है ।
धनवत्ता-निर्धनता,
विद्वत्ता-मूर्खता,
सरोगता-नीरोगता,
अनुकूलता-प्रतिकूलता
आदि सब अवस्थाएँ
हैं ।
धनवत्ताके
समय
निर्धनताका
अभाव है और
निर्धनताके
समय
धनवत्ताका
अभाव है ।
परन्तु
स्वयंका
अभाव दोनों
ही
अवस्थाओंमें
नहीं है और
स्वयंमें
दोनों ही
अवस्थाओंका
अभाव है ।
इसको यों भी
कह सकते हैं
कि धनको
सत्ता और महत्ता
देनेसे ही
धनवत्ता और
निर्धनता है ।
अगर धनको
सत्ता और
महत्ता न दें
तो न धनवत्ता है,
न निर्धनता
है ।
विद्वत्तामें
मूर्खताका
अभाव है और
मूर्खतामें
विद्वत्ताका
अभाव है, ऐसे
ही स्वयंमें
मूर्खताका
भी अभाव है ।
विद्याको
सत्ता और
महत्ता
देनेसे ही
विद्वत्ता
और
मूर्खताका
भान होता है ।
अगर
विद्याको
सत्ता और
महत्ता न दें
तो न विद्वता
हैं, न
मूर्खता है ।
विद्वत्ता
और मूर्खता
दोनों सापेक्ष
अवस्थाएँ
हैं ।
निरपेक्ष
सत्ता (स्वयं)
में न
विद्वत्ता
है, न मूर्खता ।
रोगावस्थामें
नीरोगताका
अभाव है और
निरोगावस्थामें
रोगका अभाव
है । परन्तु
स्वयंका
अभाव दोनों
ही
अवस्थाओंमें
नहीं है और
स्वयंमें
दोनों ही
अवस्थाओंका
अभाव है । अगर
स्वयं दोनों
अवस्थाओंमें
होता तो
अवस्थाके
बदलनेपर
स्वयं भी बदल
जाता और
अवस्थाके
बदलनेका
ज्ञान भी
स्वयंको
नहीं होता ।
अगर
स्वयंमें
दोनों
अवस्थाएँ
होतीं तो
अवस्थाका
भेद नहीं
होता और
अवस्थाका
अभाव भी नहीं होता
तथा एक ही
अवस्था
निरन्तर
रहती ।
परन्तु अवस्थाओंके
बदलनेका
अनुभव तो सबको
होता है, पर
अपने
बदलनेका
अनुभव कभी
किसीको हुआ
नहीं, होगा
नहीं, है नहीं
और हो सकता
नहीं ।
(शेष
आगेके
ब्लॉगमें)
‒ ‘जिन खोजा तिन पाइया’
पुस्तकसे
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