[ पाठकोंसे
प्रार्थना
है कि इस
लेखको
मनोयोगपूर्वक
धीरे-धीरे,
समझ-समझकर
पढ़ें । ]
श्रीमद्भगवद्गीतामें
आया है‒
नित्यः
सर्वगतः
स्थाणुरचलोऽयं
सनातनः ॥
(२/२४)
‘यह
सत्य-तत्त्व
नित्य
रहनेवाला,
सबमें परिपूर्ण,
अचल, स्थिर
स्वभाववाला
और अनादि है ।’
जैसे,
गंगाजी
निरन्तर
बहती रहती है,
पर जिसके ऊपर
बहती हैं, वह
आधारशिला
ज्यों-की-त्यों
स्थिर रहती
है ।
गंगाजीका जल
कभी स्वच्छ
होता है, कभी
मटमैला होता
है । कभी जल
गरम होता है,
कभी ठण्डा हो
जाता है । कभी
तेज
प्रवाहके
कारण जल आवाज
करने लगता है, कभी
शान्त हो
जाता है ।
परन्तु
आधारशिला
ज्यों-की-त्यों
रहती है, उसमें
कभी कोई फर्क
नहीं पड़ता ।
इसी तरह कभी
जलमें मछलियाँ
आ जाती है, कभी
सर्प आदि
जन्तु आ जाते
हैं, कभी
लकड़ीके
सिलपट तैरते
हुए आ जाते
हैं, कभी
पुष्प बहते
हुए आ जाते
हैं, कभी कूड़ा-कचरा
आ जाता है, कभी
मैला आ जाता
है, कभी गोबर आ
जाता है, कभी
कोई मुर्दा
बहता हुआ आ
जाता है, कभी कोई
जीवित
व्यक्ति
तैरता हुआ आ
जाता है । ये
सब तो आकर चले
जाते हैं, पर
आधारशिला
ज्यों-की-त्यों
अचल रहती है । ऐसे ही
सम्पूर्ण
अवस्थाएँ,
परिस्थितियाँ,
घटनाएँ,
क्रियाएँ
आदि निरन्तर
बह रही हैं, पर
सबका आधार
स्वयं
(सत्य-तत्त्व)
ज्यों-का-त्यों
अचल रहता है ।
परिवर्तन
अवस्थाओं
आदिमें होता
है, तत्त्वमें
नहीं ।
वास्तवमें
अवस्थाओंकी
स्वतन्त्र
सत्ता ही नहीं
है । कारण कि
जिसका कभी
कहीं भी अभाव
होता है, उसका सदा
सब जगह ही
अभाव होता है
और वह असत्
होता है‒ ‘नासतो
विद्यते
भावः’ । जिसका
कभी कहीं भी
अभाव नहीं
होता, उसका
सदा ही सब जगह
भाव होता है
और वह सत्
होता है‒‘नाभावो
विद्यते सतः’
(गीता २/१६) ।
अवस्थाओंमें
सत्ताका
अभाव है और
स्वयंमें परिवर्तन
(क्रिया) का
अभाव है ।
अज्ञानके
कारण ही
मनुष्यको
स्वयंकी
सत्ता अवस्थाओंमें
दीखती है और
अवस्थाओंका
परिवर्तन
स्वयंमें
दीखता है ।
अतः
अवस्थाओंकी
सत्ता मानना
भी भ्रम
अर्थात्
मिथ्या है और
स्वयंमें
परिवर्तन
मानना भी भ्रम
है । अवस्थामें
स्वयंको
देखना भी
भ्रम है और
स्वयंमें
अवस्थाको
देखना भी
भ्रम है ।
तत्त्वबोध
होनेपर यह
भ्रम नहीं
रहता ।
अगर
हम
अवस्थाओंमें
होते और
अवस्थाएँ
हमारेमें
होतीं तो हम
एक
अवस्थामें
ही रहते,
दूसरी
अवस्थामें
जा सकते ही
नहीं । एक
अवस्थाको
छोड़कर दूसरी अवस्थामें
वही जा सकता
है, जो
अवस्थाओंसे
अलग है । यह
हमारा
प्रत्यक्ष
अनुभव भी है
कि कोई भी अवस्था
निरन्तर
नहीं रहती, पर
हम स्वयं
निरन्तर रहते
हैं ।
जैसे,
जाग्रत्, स्वप्न,
सुषुप्ति,
समाधि और
मूर्च्छा‒ये
पाँच
अवस्थाएँ
हैं ।
जाग्रत्-अवस्थामें
स्वप्न-सुषुप्ति-समाधि-मूर्च्छाका
अभाव है, स्वप्न
अवस्थामें
जाग्रत्-सुषुप्ति-समाधि-मूर्च्छाका
अभाव है, सुषुप्ति-अवस्थामें
जाग्रत्-स्वप्न-समाधि-मूर्च्छाका
अभाव है,
समाधि अवस्थामें
जाग्रत्-स्वप्न-सुषुप्ति-मूर्च्छाका
अभाव है और
मूर्च्छा
अवस्थामें
जाग्रत्-स्वप्न-सुषुप्ति-समाधिका
अभाव है ।
परन्तु अपना
अभाव किसी भी
अवस्थामें
नहीं है और
अपनेमें सम्पूर्ण
अवस्थाओंका
अभाव है‒यह
सर्वानुभूत
स्वतःसिद्ध
बात है । जैसे
अभी जाग्रत्-अवस्थामें
स्वप्न-सुषुप्ति
आदि
अवस्थाओंका
अभाव है, ऐसे
ही स्वयंमें
जाग्रत्-अवस्थाका
भी अभाव है । तात्पर्य
है कि
स्वयंमें
कोई भी
अवस्था नहीं है
। वह
अवस्थातीत
तत्त्व है ।
(शेष
आगेके
ब्लॉगमें)
‒ ‘जिन खोजा तिन पाइया’
पुस्तकसे
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