(गत
ब्लॉगसे
आगेका)
जो
मनुष्योंमें
भी नीचे हैं,
जन्मसे भी
नीचे हैं,
कर्मसे भी
नीचे हैं,
योग्यतासे
भी नीचे हैं
और जो
पशु-पक्षी
आदि जंगम तथा
वृक्ष-लता
आदि स्थावर
जीव हैं, वे भी
यदि भगवान्के
चरणोंका
आश्रय ले लें
तो
भगवत्कृपासे
उनका भी
उद्धार हो
जाता है !
भगवान्
कहते हैं‒
मां हि
पार्थ
व्यपाश्रित्य
येऽपि
स्युः
पापयोनयः ।
स्त्रियो
वैश्यास्तथा
शूद्रास्तेऽपि
यान्ति परां
गतिम् ॥
किं
पुनर्ब्राह्मणाः
पुण्या भक्ता
राजर्षयस्तथा
।
(गीता ९/३२-३३)
‘हे
पार्थ ! जो भी
पापयोनिवाले
हों तथा जो भी
स्त्रियाँ,
वैश्य और
शूद्र हों, वे
भी सर्वथा मेरी
शरण होकर
निःसन्देह
परमगतिको
प्राप्त हो जाते
हैं । फिर जो
पवित्र
आचरणवाले
ब्राह्मण और
ऋषिस्वरूप
क्षत्रिय
मेरे भक्त
हों, वे
परमगतिको
प्राप्त हो
जायँ, इसमें
तो कहना ही या
है !’
इस
प्रकार
गीतामें
शरणागतिका
भाव बहुत
विलक्षण
रीतिसे आया
है ।
भगवान्ने
संसारकी
सम्पूर्ण
अच्छी-अच्छी
बातोंका सार
गीतामें
संग्रह कर दिया
है, मानो
गागरमें
सागर भर दिया
है ! उनमें भी
शरणागति
सम्पूर्ण
गीताका सार
है । उस
शरणागतिको
यदि कोई
स्वीकार कर
ले तो वह निहाल
हो जायगा ।
उसमें बड़ी
विलक्षणता आ
जायगी । उसके
भीतर बिना
पढ़े वेदोंका
तात्पर्य
स्वतः स्फुरित
हो जायगा ।
उसके लिये
कुछ भी करना,
जानना और
पाना शेष
नहीं रहेगा ।
अतः शरणागतिकी
अनन्त अपार
महिमा है !
नारायण
!
नारायण !!
नारायण !!!
‒ ‘जित देखूँ तित तू’
पुस्तकसे
संयोगजन्य
सुखकी लालसा
जितनी घातक
है, उतना सुख
घातक नहीं है ।
शरीर बना रहे‒यह
भाव जितना
घातक है, उतना
शरीर घातक
नहीं है ।
कुटुम्बका
मोह जितना
घातक है, उतना
कुटुम्ब घातक
नहीं है ।
रुपयोंका
लोभ जितना
घातक है, उतने
रुपये घातक
नहीं हैं ।
जो दीखता
है, उस
संसारको
अपना नहीं
मानना है, प्रत्युत
उसकी सेवा
करनी है और जो
नहीं दीखता, उस
भगवान्को
अपना मानना
है तथा उसको
याद करना है ।
मिले
हुए संसारका
दुरुपयोग मत
करो, जाने हुए
तत्त्वका
अनादर मत करो
और माने हुए
परमात्मामें
सन्देह मत
करो ।
हमारे
हृदयमें
जड़ता
(शरीर-संसार)
का जितना आदर
हुआ है, उतना
ही
परमात्माका
अनादर हुआ है
और वह अनादर
ही हमारा पतन
करेगा, हमारी
अधोगति करेगा
।
नाशवान्
पदार्थोंकी
महत्त्वबुद्धि
मनुष्यको
पददलित करती
है और
परमात्माकी
महत्त्वबुद्धि
उसको ऊँचा
उठाती है ।
जो जिस
वस्तु,
व्यक्ति
आदिका
दुरुपयोग
करता है, उसको
उससे वंचित
होनेका दुःख
भोगना ही
पड़ता है ।
जो अपना
है, वह सदा ही
अपना है और जो
किसी भी समय अपना
नहीं है, वह
कभी भी अपना
नहीं हो सकता ।
जो
सभीका होता
है, वही हमारा
होता है । जो
किसी भी समय
किसीका नहीं
होता, वह
हमारा हो ही
नहीं सकता ।
‒
‘अमृतबिन्दु’
पुस्तकसे
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