।। श्रीहरिः ।।


आजकी शुभ तिथि–
श्रावण कृष्ण नवमी, वि.सं.–२०७०, बुधवार
गीताकी शरणागति


(गत ब्लॉगसे आगेका)
       ज्ञानयोगीके लिये तो भगवान्‌ने बताया कि वह सब विषयोंका त्याग करके संयमपूर्वक निरन्तर ध्यानके परायण रहे, तब तक वह अहंता, ममता, काम, क्रोध आदिका त्याग करके ब्रह्मप्राप्तिका पात्र होता है* । परन्तु भक्तके लिये उपर्युक्त श्लोकमें बताया कि वह अपने वर्ण-आश्रमके अनुसार सब विहित कर्मोंको करते हुए भी मेरी कृपासे परमपदको प्राप्त हो जाता है; क्योंकि उसने मेरा ही आश्रय लिया है‒‘मद्‌व्यपाश्रयः’ । तात्पर्य है कि भगवान्‌के चरणोंका आश्रय लेनेसे सुगमतासे कल्याण हो जाता है । भक्तको अपना कल्याण खुद नहीं करना पड़ता, प्रत्युत प्रभु-कृपा उसका कल्याण कर देती है‒‘मत्प्रसादादवाप्नोति शाश्वतं पदमव्ययम् ।’

       भगवान्‌की शरणमें जानेका काम तो भक्तका है, पर शरणागतिकी सिद्धि भगवान्‌की कृपासे होती है । अहंताको बदलनेकी उत्कण्ठा तो भक्तकी होती है, पर बदलनेका काम भगवान्‌ करते हैं । जैसे बच्चेकी इच्छा माँ पूरी कर देती है, ऐसे ही भक्तकी इच्छा (उत्कण्ठा) तो भगवान्‌ पूरी कर देते हैं गीतामें आया है‒
यो यो यां यां तनुं भक्तः श्रद्धयार्चितुमिच्छति ।
तस्य तस्याचलां श्रद्धां तामेव विदधाम्यहम् ॥
                                                          (७/२१)

         ‘जो-जो भक्त जिस-जिस देवताका श्रद्धापूर्वक पूजन करना चाहता है, उस-उस देवताके प्रति मैं उसकी श्रद्धाको दृढ़ कर देता हूँ ।’

          जब भगवान्‌ दूसरे देवताओंमें मनुष्यकी श्रद्धाको दृढ़ कर देते हैं तो फिर अपनेपर श्रद्धा करनेवाले भक्तोंकी श्रद्धाको वे दृढ़ क्यों नहीं करेंगे ? अवश्य करेंगे । इसलिये आया है--
राम सदा सेवक रुचि राखी ।
बेद पुरान  साधु सुर साखी ॥
                                 (मानस, अयोध्या २१९/४)

         जीवमात्र किसी-न-किसीका आश्रय चाहता है कि कोई मुझे अपनानेवाला मिल जाय, मेरी सहायता करनेवाला मिल जाय, मेरी रक्षा करनेवाला मिल जाय, मेरा पालन करनेवाला मिल जाय, मेरा दुःख दूर करनेवाला मिल जाय, मेरे भयको हरनेवाला मिल जाय, मेरे सन्तापको हरनेवाला मिल जाय, मेरेको तत्त्वज्ञान देनेवाला मिल जाय, मेरा उद्धार करनेवाला मिल जाय, आदि-आदि । कोई कुटुम्बका आश्रय लेता है, कोई धनका आश्रय लेता है, कोई अपने विद्या-बुद्धिका आश्रय लेता है, कोई अपनी योग्यता आदिका आश्रय लेता है और कोई अपने पुरुषार्थका आश्रय लेता है कि मैं सब कुछ कर लूँगा । ऐसे अनेक तरहके आश्रय हैं, पर ये सब-के-सब नष्ट होनेवाले हैं । परन्तु भगवान्‌का आश्रय अविनाशी है और अविनाशी पदकी प्राप्ति करानेवाला है ।

     (शेष आगेके ब्लॉगमें)
‒ ‘जित देखूँ तित तू’ पुस्तकसे
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* बुद्ध्या विशुद्धया युक्तो धृत्यात्मानं नियम्य च ।
    शब्दादीन्विषयांस्त्यक्त्वा   रागद्वेषौ व्युदस्य च ॥
   विविक्तसेवी    लघ्वाशी     यतवाक्कायमानसः ।
  ध्यानयोगपरो नित्यं        वैराग्यं समुपाश्रितः ॥
 अहंकारं  बलं  दर्पं        कामं  क्रोधं  परिग्रहम् ।
विमुच्य निर्ममः शान्तो      ब्रह्मभूयाय कल्पते ॥
                                                                                                    (गीता १८/५१-५३)