।। श्रीहरिः ।।


आजकी शुभ तिथि–
श्रावण कृष्ण अष्टमी, वि.सं.–२०७०, मंगलवार
गीताकी शरणागति
 

(गत ब्लॉगसे आगेका)
कर्मयोगमें निष्कामभावकी स्मृति होती है, ज्ञानयोगमें स्वरूपकी स्मृति होती है और भक्तियोगमें भगवान्‌के साथ आत्मीयताकी स्मृति होती है, जो कि सदासे ही है ।

       भगवान्‌के साथ कर्मयोगीका ‘नित्य’-सम्बन्ध होता है, ज्ञानयोगीका ‘तात्त्विक’-सम्बन्ध होता है और शरणागत भक्तका ‘आत्मीय’-सम्बन्ध होता है । नित्य-सम्बन्धमें संसारके अनित्य-सम्बन्धका त्याग है, तात्त्विक-सम्बन्धमें तत्त्वके साथ एकता (तत्वबोध) है और आत्मीय-सम्बन्धमें भगवान्‌के साथ अभिन्नता (प्रेम) है । नित्य-सम्बन्धमें शान्तरस है, तात्त्विक-सम्बन्धमें अखण्डरस है और आत्मीय-सम्बन्धमें अनन्तरस है । अनन्तरसकी प्राप्ति हुए बिना जीवकी भूख सर्वथा नहीं मिटती । अनन्तरसकी प्राप्ति शरणागतिसे होती है । इसलिये शरणागति सर्वश्रेष्ठ साधन है ।

         गीतामें कर्मयोगी, ज्ञानयोगी, ध्यानयोगी आदि कई तरहके योगियोंका वर्णन आया है, पर भगवान्‌ने केवल भक्तियोगीको अर्थात्‌ शरणागत भक्तको ही दुर्लभ महात्मा बताया है‒
बहूनां जन्मनामन्ते   ज्ञानवान्मां प्रपद्यते ।
वासुदेवः सर्वमिति स महात्मा सुदुर्लभः ॥
                                                  (गीता ७/१९)

         ‘बहुत जन्मोंके अन्तमें ‘सब कुछ वासुदेव ही हैं’‒ऐसा जो ज्ञानवान्‌ मेरी शरण होता है, वह महात्मा अत्यन्त दुर्लभ है ।’

          भगवान्‌ महात्माको तो दुर्लभ बताते हैं, पर अपनेको सुलभ बताते हैं‒
अनन्यचेताः सततं   यो मां स्मरति नित्यशः ।
तस्याहं सुलभः पार्थ नित्ययुक्तस्य योगिनः ॥
                                                        (गीता ८/१४)

       ‘हे पार्थ ! अनन्यचित्तवाला जो मनुष्य मेरा नित्य-निरन्तर स्मरण करता है, उस नित्ययुक्त योगीके लिये मैं सुलभ हूँ ।’

हरि दुरलभ नहिं जगतमें,     हरिजन दुरलभ होय ।
हरि हेर्‌याँ सब जग मिलै, हरिजन कहिं एक होय ॥

हरि से तू जनि हेत कर, कर हरिजन से हेत ।
हरि रीझै जग देत हैं, हरिजन हरि ही देत ॥

      संसारमें भगवान्‌ दुर्लभ नहीं हैं, प्रत्युत उनके शरणागत भक्त दुर्लभ हैं । कारण कि भगवान्‌को ढूँढ़ें तो वे सब जगह मिल जायँगे, पर भगवान्‌का प्यारा भक्त कहीं-कहीं ही मिलेगा । भगवान्‌ प्रसन्न होकर मनुष्य-शरीर देते हैं तो उस शरीरसे जीव नरकोंमें भी जा सकता है*; परन्तु भक्त तो भगवान्‌की ही प्राप्ति कराता है । भक्तका संग करनेवाला नरकोंमें नहीं जा सकता ।

        गीताके अठारहवें अध्यायके आरम्भमें अर्जुनने भगवान्‌से ज्ञानयोग और कर्मयोगका तत्त्व ही पूछा था । परन्तु भगवान्‌ने उन दोंनोंका तत्त्व पचपनवें श्लोकतक बताकर फिर कृपापूर्वक अपनी तरफसे भक्तिका वर्णन शुरू कर दिया और कहा‒
सर्वकर्माण्यपि सदा कुर्वाणो मद्‌व्यपाश्रयः ।
मत्प्रसादादवाप्नोति    शाश्वतं पदमव्ययम् ॥
                                                     (गीता १८/५६)

        ‘मेरा आश्रय लेनेवाला भक्त सब कर्म करता हुआ भी मेरी कृपासे शाश्वत अविनाशी पदको प्राप्त हो जाता है ।’

     (शेष आगेके ब्लॉगमें)
‒ ‘जित देखूँ तित तू’ पुस्तकसे
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                               * नर तन सम नहिं कवनिउ देही । जीव चराचर जाचत तेही ॥
                                                        नरक स्वर्ग अपबर्ग निसेनी । ग्यान बिराग भगति सुभ देनी ॥
                                                                                                     (मानस, उत्तर॰ १२१/५)