(गत
  ब्लॉगसे
  आगेका)
								 
						                   मनुष्यमें
  जो भी
  विशेषता,
  विलक्षणता
  आती है, वह सब
  भगवान्से
  ही आती है ।  भगवान्
  कहते हैं‒
								 
						यद्यद्विभूतिमत्सत्त्वं         श्रीमदूर्जितमेव
  वा ।
								 
						तत्तदेवावगच्छ
  त्वं मम
  तेजोंऽशसम्भवम्
  ॥
								 
						                                                                                            
  (गीता १०/४१)
								 
						                यदि
  भगवान्में
  विशेषता,
  विलक्षणता न
  होती तो वह
  मनुष्यमें
  कैसे आती ? जो
  चीज अंशीमें
  नहीं है, वह
  अंशमें कैसे
  आ सकती है ? मनुष्यसे
  यही भूल होती
  है कि वह उस विशेषताको
  अपनी
  विशेषता
  मानकर
  अभिमान कर लेता
  है और जहाँसे
  विशेषता आयी
  है, उस तरफ
  देखता ही
  नहीं ! मिली
  हुई चीजको
  अपनी मान
  लेता है, पर उसे
  देनेवालेको
  अपना मानता
  ही नहीं !  वास्तवमें
  वस्तु अपनी
  नहीं है,
  प्रत्युत
  उसको
  देनेवाले
  भगवान्
  अपने हैं । उन
  भगवान्के
  ही चरणोंकी
  शरण लेनी है ।
								 
						                 वास्तवमें
  हम सब-के-सब
  सदासे ही
  भगवान्के
  हैं, उनके ही
  शरणागत हैं ।
  इसीलिये कोई
  भी मनुष्य
  ऐसा नहीं कह
  सकता कि मैंने
  अपनी मरजीसे
  इन
  माता-पिताके
  यहाँ जन्म लिया
  है और मैं
  अपनी मनचाही
  वस्तु,
  परिस्थिति आदि
  प्राप्त कर
  सकता हूँ ।
  कारण कि यह सब
  भगवान्के
  हाथमें है ।
  इसमें हमारी
  मरजी काम
  नहीं करती,
  प्रत्युत भगवान्की
  ही मरजी काम
  करती है ।
								 
						               करी गोपाल की
  सब होइ ।
								 
						               जो 
  अपनौं  
  पुरुषारथ   मानत,                   अति  झूठो  है  सोइ ॥
								 
						               साधन, 
  मंत्र, 
  जंत्र, 
  उद्यम, 
  बल,             
  ये  
  सब 
  डारौ 
  धोइ ।
								 
						               जो कुछ लिखि
  राखी  नँदनंदन,           मेटि  सकै  नहिं  कोइ ॥
								 
						               दुख-सुख,
  लाभ-अलाभ
  समुझि तुम,
  कतहिं मरत
  हौं रोइ ।
								 
						               सूरदास 
  स्वामी  
  करुनामय,               
  स्याम-चरन   मन  पोइ ॥
								 
						                                                                                                                               
  (सूरविनय॰ २७६)
								 
						        सब कुछ
  भगवान् ही
  करते है;
  क्योंकि
  उन्होंने
  सदासे ही
  हमें अपनी
  शरणमें ले
  रखा है । अब
  हमें केवल
  उनकी
  शरणागति
  स्वीकार
  करनी है, उनकी
  हाँ-में-हाँ
  मिलानी है,
  उनकी
  मरजीमें अपनी
  मरजी मिलानी
  है ।
								 
						        भगवान्की
  तरफसे तो हम
  सब उनके ही
  हैं‒‘ममैवांशो
  जीवलोके’
  (गीता १५/७), ‘सब
  मम प्रिय सब
  मम उपजाए’
  (मानस, उत्तर॰ ८६/२) । परन्तु
  हम अपनी
  तरफसे
  संसारके बन
  जाते हैं । अतः
  वास्तवमें
  हमें भगवान्के
  शरणागत नहीं
  होना है,
  प्रत्युत
  संसारकी शरणागतिका
  त्याग करना
  है, अपनी
  भूलको
  मिटाना है । गीता
  सुननेसे
  अर्जुनकी भी
  भूल मिट गयी
  और उनको ‘मैं
  तो सदासे
  भगवान्का
  ही हूँ’‒ऐसी
  स्मृति
  प्राप्त हो
  गयी । अर्जुन
  कहते हैं‒
								 
						नष्टो
  मोहः
  स्मृतिर्लब्धा
  त्वत्प्रसादान्मयाच्युत
  ।
								 
						स्थितोऽस्मि
  गतसन्देहः         करिष्ये
  वचनं तव ॥
								 
						                                                                                                      
  (गीता १८/७३)
								 
						                 ‘हे
  अच्युत ! आपकी
  कृपासे मेरा
  मोह नष्ट हो
  गया है और
  स्मृति
  प्राप्त हो
  गयी है । मैं
  सन्देहरहित
  होकर स्थित
  हूँ । अब मैं
  आपकी
  आज्ञाका
  पालन करूँगा ।’
								 
						                  भगवान्ने
  कहा‒‘सर्वधर्मान्परित्यज्य
  मामेकं शरणं
  व्रज’ तो
  अर्जुनने
  कहा‒‘करिष्ये
  वचनं तव’ । तात्पर्य
  है कि शरण लेनेके
  बाद
  मनुष्यका
  काम है‒भगवान्की
  आज्ञाका
  पालन करना ।
								 
						      
  (शेष आगेके
  ब्लॉगमें)
								 
						‒ ‘जित देखूँ तित तू’
  पुस्तकसे
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