(गत
ब्लॉगसे
आगेका)
हनुमान्जी
समुद्रको
लाँधनेके
लिये तैयार
हो गये कि रामजीका
काम तो
रामजीकी
कृपासे होगा,
उसमें अपनी
योग्यता-अयोग्यताको
क्यों देखें ?
जहाँ अपने
बलका अभिमान
नहीं होता,
वहाँ भगवान्का
बल काम करता
है । अभिमान
होनेसे ही
बाधा लगती है ।
जब
कभी अपनेमें
अभिमान आ जाय,
हमारी
वृत्तियाँ
खराब हो जायँ,
मनमें कोई
कामना
उत्पन्न हो
जाय तो उसको
दूर करनेका
सबसे सुगम और
बढ़िया उपाय
है‒ भगवान्से
कह देना । मन-ही-मन
भगवान्से
कहे कि ‘हे नाथ !
देखिये,
देखिये, मेरे
मनमें कामना
आ गयी ! मेरे
मनकी दशा
देखिये
भगवन् ! मेरे
मनमें ऐसी
वृत्ति आ गयी,
ऐसा संकल्प आ
गया ! हे नाथ,
मैं आपका
भजन-ध्यान
करता हूँ, लोग
मेरेको आपका
भक्त मानते
हैं, अच्छा
मानते हैं, पर
मेरी दशा यह
है !’ जैसे अग्निके
साथ सम्बन्ध
होनेपर काला
कोयला भी चमक
उठता है;
क्योंकि
वास्तवमें
कोयलेका
सम्बन्ध तो
अग्निसे ही
है, पर
अग्निसे दूर
होनेपर वह
काला हो जाता
है । ऐसे ही
भगवान्के
साथ सम्बन्ध
होनेपर
मनुष्यके सब
दोष मिट जाते
हैं और वह चमक
उठता है,
उसमें
विलक्षणता आ जाती
है; क्योंकि
वास्तवमें
मनुष्यका
सम्बन्ध तो
भगवान्के
साथ ही है ।
भगवान्की
कृपा
असम्भवको भी
सम्भव बना
देती है । ऐसे ‘कर्तुमकर्तुमन्यथाकर्तुं
समर्थः’ भगवान्के
चरणोंका
आश्रय लिया
जाय तो फिर
किस बातकी चिन्ता
? भगवान्
अपने शरणागत
भक्तका सब
काम कर देते
हैं‒‘सब
बिधि घटब काज
मैं तोरें’,
अहं त्वा
सर्वपापेभ्यो
मोक्षयिष्यामि
।’
बल,
बुद्धि,
योग्यता आदि
किसी भी
चीजका
किंचिन्मात्र
भी आश्रय
लेना
मनुष्यकी
कमजोरी है; क्योंकि
अन्यका
आश्रय लेना
कमजोरका ही
काम है ।
परन्तु
भगवान्का
आश्रय लेना
कमजोरी नहीं
है, प्रत्युत
वास्तविकता
है । कारण
कारण कि
भगवान्का
अंश होनेसे
जीव
स्वतः-स्वाभाविक
भगवान्के
आश्रित है ।
जब वह अपने
अंशी भगवान्से
विमुख होकर
प्रकृतिके
अंश
(शरीर-संसार)
का आश्रय ले
लेता है, तब वह
कमजोर,
पराधीन,
असहाय, अनाथ
हो जाता है ।
इसलिये अपने
बलका आश्रय
लेनेवाला
मनुष्य अभिमान
तो करता है कि
मैं यों कर
दूँगा ! ऐसा कर
दूँगा ! पर जब
पेशाब रुक
जाता है, तब
डाक्टरके
पास भागता है !
अपनी शक्तिका
अभिमान तो
करता है, पर
दशा यह है कि
पेशाब
करनेकी भी
शक्ति नहीं
है !
वास्तवमें
संसारका
आश्रय
लेनेवाला
कुछ नहीं कर
सकता ।
परन्तु जो
भगवान्का
आश्रय लेता
है, वह सब कुछ
कर सकता है ।
वह असम्भवको
भी सम्भव कर सकता
है; क्योंकि
भगवान्की
सब शक्ति
शरणागतमें आ
जाती है । भगवान्की
शरण लेनेसे
नारदजीने
कामदेवको
जीत लिया‒
काम कला
कछु मुनिहि न
ब्यापी ।
निज भयँ
डरेउ
मनोभव पापी
॥
सीम कि
चापि सकइ कोउ
तासू ।
बड़
रखवार
रमापति जासू ॥
(मानस, बाल॰ १२६/४)
शक्ति
तो भगवान्की
थी, पर
नारदजीमें
अभिमान आ गया
कि मैंने अपनी
शक्तिसे
कामको जीत
लिया‒‘जिता
काम अहमिति
मन माहीं’
(मानस, बाल॰ १२७/३) । अभिमान
आते ही वह बात
नहीं रही और
वे विश्वमोहिनी
कन्यापर
मोहित हो गये‒‘करौं जाइ
सोइ जतन
बिचारी ।
जेहि प्रकार
मोहि बरै
कुमारी ॥’
(मानस, बाल॰ १३१/४) । अपने
बलका अभिमान
आते ही ‘हे
बिधि मिलइ
कवन बिधि
बाला’‒यह
दशा हो गयी ।
(शेष आगेके
ब्लॉगमें)
‒ ‘जित देखूँ तित तू’
पुस्तकसे
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