(गत
ब्लॉगसे
आगेका)
शरणागति
अत्यन्त
सुगम साधन है । जैसे
मनुष्य नींद
लेता है तो
उसको नींद
लेनेके लिये
न तो कोई
पुरुषार्थ
करना पड़ता है,
न कोई परिश्रम
करना पड़ता है,
न कुछ याद
करना पड़ता है, न
कोई कार्य
करना पड़ता है,
प्रत्युत सब
कुछ छोड़ना
पड़ता है । सब
कुछ छोड़ दें
तो नींद
स्वतः आ जाती
है । इसी तरह
अपने बल, बुद्धि,
विद्या,
योग्यता
आदिका कोई
अभिमान न
रखें, कोई
आश्रय न रखें
तो शरणागति
स्वतः हो
जाती है, उसके
लिये कुछ
करना नहीं
पड़ता । कारण
कि
वास्तवमें
जीवमात्र
भगवान्के
ही शरणागत है ।
भगवान्
सबको अपना
मानते हैं‒‘सब मम
प्रिय सब मम
उपजाए’ (मानस,
उत्तर॰ ८६/२) । परन्तु
जीव अभिमान
करके भगवान्से
दूर हो जाता
है अर्थात्
अपनेको
भगवान्से
दूर मान लेता
है । अतः अपने
बल, योग्यता,
वर्ण, आश्रम
आदिका अभिमान
अथवा सहारा
शरणागतिमें
महान् बाधक
है । यदि
अभिमान न
छूटे तो इसके
लिये
आर्तभावपूर्वक
भगवान्से
ही
प्रार्थना
करनी चाहिये
कि ‘हे नाथ ! मैं
अभिमान
छोड़ना चाहता
हूँ, पर मेरेसे
छूटता नहीं,
क्या करूँ !’ तो
वे छुड़ा
देंगे । जो
काम हमारे
लिये
कठिन-से-कठिन
है, वह भगवान्के
लिये
सुगम-से-सुगम
है । अतः
अपनेमें कोई
दोष दीखे तो
भगवान्को
ही पुकारना
चाहिये, अपने
दोषको
महत्त्व न
देकर
शरणागतिको
ही महत्त्व
देना चाहिये । शरणागतिको
महत्त्व
देनेसे दोष
स्वतः दूर हो जाते
हैं ।
शरणागत
भक्तके लिये
साधन भी
भगवान् हैं,
साध्य भी
भगवान् हैं
और सिद्धि भी
भगवान् हैं ।
इसलिये
गीतामें
भगवान्ने
कर्मयोग और
ज्ञानयोगकी
निष्ठा तो
बतायी है, पर
भक्तियोगकी
निष्ठा नहीं
बतायी है* । कारण कि
कर्मयोगी और
ज्ञानयोगीकी
तो खुदकी निष्ठा
होती है, पर
भक्तकी
खुदकी
निष्ठा नहीं
होती,
प्रत्युत
भगवान्की
ही निष्ठा
होती है । भक्त
साधननिष्ठ न
होकर
भगवन्निष्ठ
होता है । जैसे,
बँदरीका
बच्चा खुद
माँको पकड़ता
है, पर बिल्लीका
बच्चा माँको
नहीं पकड़ता,
प्रत्युत माँ
ही उसको
पकड़कर जहाँ
चाहे, वहाँ ले
जाती है ।
शरणागत भक्त
भी बिल्लीके
बच्चेकी तरह
अपने बलका
सहारा नहीं
लेता, अपने
बलका अभिमान
नहीं करता ।
हनुमान्जी
भक्तिके
आचार्य होते हुए
भी अभिमान न
होनेके कारण
कहते हैं‒‘जानउँ
नहिं कछु भजन
उपाई’ (मानस,
किष्किन्धा॰ ३/२) । ‘अतुलित-बलधामा’ होते हुए भी
उनको अपना बल
याद नहीं है ।
जाम्बवान्ने
उनसे कहा‒
पवन तनय बल पवन
समाना ।
बुधि
बिबेक
बिज्ञान निधाना
॥
कवन सो
काज कठिन जग
माहीं ।
जो नहिं होई तात
तुम्ह पाहीं
॥
(मानस,
किष्किन्धा॰ ३०/२-३)
जाम्बवान्से
इतनी
प्रशंसा
सुनकर भी
हनुमान्जी
चुप रहे ।
परन्तु जब
जाम्बवान्ने
कहा कि आपका
अवतार ही
रामजीका काम
करनेके लिये
हुआ है, तब
हनुमान्जीको
तत्काल अपना
सब बल याद आ
गया‒
राम
काज लगि तव
अवतारा ।
सुनतहिं भयउ
पर्बताकारा
॥
(मानस,
किष्किन्धा॰ ३०/३)
(शेष आगेके
ब्लॉगमें)
‒ ‘जित देखूँ तित तू’
पुस्तकसे
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* लोकेऽस्मिन्
द्विविधा
निष्ठा पुरा
प्रोक्ता
मयानघ ।
ज्ञानयोगेन साङ्ख्यानां कर्मयोगेन योगिनाम्
॥ (गीता ३/३)
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