।। श्रीहरिः ।।


आजकी शुभ तिथि–
श्रावण कृष्ण पंचमी, वि.सं.–२०७०, शनिवार
गीताकी शरणागति
 

(गत ब्लॉगसे आगेका)
शरणागति अत्यन्त सुगम साधन है । जैसे मनुष्य नींद लेता है तो उसको नींद लेनेके लिये न तो कोई पुरुषार्थ करना पड़ता है, न कोई परिश्रम करना पड़ता है, न कुछ याद करना पड़ता है, न कोई कार्य करना पड़ता है, प्रत्युत सब कुछ छोड़ना पड़ता है । सब कुछ छोड़ दें तो नींद स्वतः आ जाती है । इसी तरह अपने बल, बुद्धि, विद्या, योग्यता आदिका कोई अभिमान न रखें, कोई आश्रय न रखें तो शरणागति स्वतः हो जाती है, उसके लिये कुछ करना नहीं पड़ता । कारण कि वास्तवमें जीवमात्र भगवान्‌के ही शरणागत है । भगवान्‌ सबको अपना मानते हैं‒‘सब मम प्रिय सब मम उपजाए’ (मानस, उत्तर ८६/२) । परन्तु जीव अभिमान करके भगवान्‌से दूर हो जाता है अर्थात् अपनेको भगवान्‌से दूर मान लेता है । अतः अपने बल, योग्यता, वर्ण, आश्रम आदिका अभिमान अथवा सहारा शरणागतिमें महान्‌ बाधक है । यदि अभिमान न छूटे तो इसके लिये आर्तभावपूर्वक भगवान्‌से ही प्रार्थना करनी चाहिये कि ‘हे नाथ ! मैं अभिमान छोड़ना चाहता हूँ, पर मेरेसे छूटता नहीं, क्या करूँ !’ तो वे छुड़ा देंगे । जो काम हमारे लिये कठिन-से-कठिन है, वह भगवान्‌के लिये सुगम-से-सुगम है । अतः अपनेमें कोई दोष दीखे तो भगवान्‌को ही पुकारना चाहिये, अपने दोषको महत्त्व न देकर शरणागतिको ही महत्त्व देना चाहिये । शरणागतिको महत्त्व देनेसे दोष स्वतः दूर हो जाते हैं ।

शरणागत भक्तके लिये साधन भी भगवान्‌ हैं, साध्य भी भगवान्‌ हैं और सिद्धि भी भगवान्‌ हैं । इसलिये गीतामें भगवान्‌ने कर्मयोग और ज्ञानयोगकी निष्ठा तो बतायी है, पर भक्तियोगकी निष्ठा नहीं बतायी है* । कारण कि कर्मयोगी और ज्ञानयोगीकी तो खुदकी निष्ठा होती है, पर भक्तकी खुदकी निष्ठा नहीं होती, प्रत्युत भगवान्‌की ही निष्ठा होती है । भक्त साधननिष्ठ न होकर भगवन्निष्ठ होता है । जैसे, बँदरीका बच्चा खुद माँको पकड़ता है, पर बिल्लीका बच्चा माँको नहीं पकड़ता, प्रत्युत माँ ही उसको पकड़कर जहाँ चाहे, वहाँ ले जाती है । शरणागत भक्त भी बिल्लीके बच्चेकी तरह अपने बलका सहारा नहीं लेता, अपने बलका अभिमान नहीं करता । हनुमान्‌जी भक्तिके आचार्य होते हुए भी अभिमान न होनेके कारण कहते हैं‒‘जानउँ नहिं कछु भजन उपाई’ (मानस, किष्किन्धा ३/२)‘अतुलित-बलधामा’ होते हुए भी उनको अपना बल याद नहीं है । जाम्बवान्‌ने उनसे कहा‒
पवन तनय बल     पवन समाना ।
बुधि बिबेक      बिज्ञान निधाना ॥
कवन सो काज कठिन जग माहीं ।
जो नहिं होई     तात तुम्ह पाहीं ॥
                                          (मानस, किष्किन्धा ३०/२-३)

        जाम्बवान्‌से इतनी प्रशंसा सुनकर भी हनुमान्‌जी चुप रहे । परन्तु जब जाम्बवान्‌ने कहा कि आपका अवतार ही रामजीका काम करनेके लिये हुआ है, तब हनुमान्‌जीको तत्काल अपना सब बल याद आ गया‒

राम काज लगि तव अवतारा । सुनतहिं भयउ पर्बताकारा ॥
                                                               (मानस, किष्किन्धा ३०/३)

    (शेष आगेके ब्लॉगमें)
‒ ‘जित देखूँ तित तू’ पुस्तकसे
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* लोकेऽस्मिन् द्विविधा निष्ठा पुरा प्रोक्ता मयानघ ।
    ज्ञानयोगेन साङ्ख्यानां   कर्मयोगेन योगिनाम् ॥
                                                                                                (गीता ३/३)