(गत
ब्लॉगसे
आगेका)
मैं
जहाँ रहता
हूँ, वह
भगवान्का
घर है; जो काम
करता हूँ, वह
भगवान्का
काम है; जो
पाता हूँ, वह
भगवान्का
प्रसाद है और
जिन
माता-पिता,
स्त्री-पुत्र
आदिका पालन
करता हूँ, वे
भगवान्के
ही जन हैं । जैसे
विवाह
होनेपर
स्त्रीका
गोत्र बदल
जाता है,
पतिका गोत्र
ही उसका
गोत्र हो
जाता है, ऐसे ही
शरणागत
भक्तका
‘अच्युतगोत्र’
हो जाता है ।
गोस्वामीजी
महाराज कहते
हैं‒‘साह
ही को गोतु
गोतु होत है
गुलाम को’
(कवितावली,
उत्तर॰ १०७) ।
जैसे
पहलवान
मनुष्यके
किसी अंगमें
कोई कमजोरी
हो तो उसको
पकड़ लेनेसे
वह हार जाता
है, ऐसे ही भगवान्की
भी एक कमजोरी
है, जिसको पकड़
लेनेसे वे
इधर-उधर नहीं
हो सकते, हार
जाते हैं ! वह
कमजोरी है‒एक
भगवान्के
सिवाय अन्य
किसीका
सहारा न लेना
अर्थात्
अनन्यभावसे
भगवान्की
शरण लेना‒
एक बानि करुनानिधान की ।
सो प्रिय
जाकें न गति
आन की ॥
(मानस, अरण्य॰ १०/४)
मीराबाईने
कहा है‒‘मेरे
तो गिरधर
गोपाल,
दूसरों न कोई’ । ‘मेरे तो
गिरधर गोपाल’‒यह
तो सब कह देते
हैं, पर ‘दूसरों
न कोई’‒यह
नहीं कहते,
प्रत्युत
माता-पिता,
भाई-बन्धु, कुटुम्बी,
धन-सम्पत्ति,
विद्या,
योग्यता आदि
किसी-न-किसीका
आश्रय भी
साथमें रखते
हैं । जैसे
किसी राजाका
बेटा
दूसरोंसे
भीख माँगने लगे
तो वह राजाको
नहीं सुहाता,
ऐसे ही सत्-चित्-आनन्दरूप
भगवान्का
अंश जीव जब
असत्-जड़-दुःखरूप
संसारका
आश्रय लेता
है तो वह
भगवान्को
नहीं सुहाता;
क्योंकि
इसमें जीवका
महान् अहित
है । भगवान्को
वही प्यारा
लगता है, जो
अन्यका
आश्रय नहीं लेता‒‘सो प्रिय
जाकें गति न
आन की’ ।
भगवान्
कहते हैं‒‘मय्यर्पितमनोबुद्धिर्यो
मद्भक्तः स
मे प्रियः’
(गीता १२/१४) ‘मेरेमें
अर्पित
मन-बुद्धिवाला
जो मेरा भक्त है,
वह मेरेको
प्रिय है ।’
सर्वथा
भगवान्की
शरण हो जायँ
तो फिर वे छोड़
नहीं सकते ।
परन्तु जो
भगवान्के
सिवाय
अन्यका
सहारा रखता
है, धन, बल,
बुद्धि, योग्यता,
वर्ण-आश्रम,
विद्या
आदिका सहारा
रखता है तो
फिर भगवान् उसकी
पूरी रक्षा
नहीं करते ।
जब वह पूरी
शरण हुआ ही
नहीं तो फिर
उसकी पूरी रक्षा
कैसे करें ?
इसलिये
भगवान्
कहते हैं‒‘मामेकं
शरणं व्रज’ ‘केवल
मेरी शरणमें
आ’ । परन्तु
शरणागतके
भीतर ऐसी
दृढ़ता रहनी
चाहिये कि
भगवान् भले
ही मेरी
रक्षा न करें,
मेरी कितनी
ही हानि हो
जाय, चाहे
शरीर नष्ट हो
जाय तो भी
आश्रय भगवान्का
ही रखूँगा ।
चैतन्य
महाप्रभु
कहते हैं‒
आश्लिष्य
वा पादरतां
पिनुष्ट मा-
मदर्शानान्मर्महतां
करोतु वा ।
यथा
तथा वा
विदधातु
लम्पटो
मत्प्राणनाथस्तु
स एव नापरः ॥
(शिक्षाष्टक
८)
‘वे
चाहे मुझे
हृदयसे
लगाकर
हर्षित करें
या चरणोंमें
लिपटे हुए
मुझे
पैरोंतले
रौंद डालें अथवा
दर्शन न देकर
मर्माहत ही
करें । वे परम
स्वतन्त्र
श्रीकृष्ण
जैसे चाहे
वैसे करें,
मेरे तो वे ही
प्राणनाथ
हैं, दूसरा
कोई नहीं ।’
(शेष आगेके
ब्लॉगमें)
‒ ‘जित देखूँ तित तू’
पुस्तकसे
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