(गत
ब्लॉगसे
आगेका)
भगवान्की
स्तुति करते
हुए
ब्रह्माजी
कहते हैं‒
हृद्वाग्वपुर्भिर्विदधन्नमस्ते
जीवेत यो
मुक्ति पदे स
दायभाक् ।
(श्रीमद्भा॰ १०/१४/८)
‘जो
हृदय, वाणी
तथा शरीरसे
आपको
नमस्कार
करता रहता है,
वह आपके
परमपदका ठीक
वैसे ही
अधिकारी हो
जाता है, जैसे
पिताकी
सम्पत्तिका
पुत्र !’
नमस्कार
से रामदास,
करम सभी कट
जाय ।
जाय मिले
परब्रह्ममें, आवागमन मिटाय ॥
भगवान्को
प्रणाम करना
उनकी शरणगति
है । प्रणाम
करनेका
तात्पर्य है‒‘मैं
आपका हूँ; अतः
आप जो भी
विधान करें,
मुझे स्वीकार
है ।’ गीतामें भी
कई जगह
नमस्कार
करनेकी बात
आयी है; जैसे‒‘मां
नमस्कुरु’
(९/३४, १८/६५),
‘नमस्यन्तश्च
मां भक्त्या’
(९/१४), ‘सर्वे
नमस्यन्ति च
सिद्धसङ्गाः’
(११/३६) आदि । हमारी
संस्कृति ही
शरणागति-प्रधान
है । शिष्य
गुरुको
प्रणाम करता
है, पुत्र
माता-पिताको
प्रणाम करता
है, स्त्री
पतिको
प्रणाम करती
है, नौकर
मालिकको
प्रणाम करता
है, प्रजा राजाको
प्रणाम करती
है आदि ।
मनुस्मृतिमें
आया है‒
अभिवादनशीलस्य
नित्यं वृद्धोपसेविनः
।
चत्वारि
तस्य
वर्धन्ते
आयुर्विद्या
यशो बलम् ॥
(२/१२१)
‘जिसका
प्रणाम
करनेका
स्वभाव है और
जो नित्य वृद्धोंकी
सेवा करता है,
उसकी आयु,
विद्या, यश और
बल ‒ये चारों
बढ़ते हैं ।’
महाभारत-युद्धके
आरम्भमें
युधिष्ठिर
अपने विपक्षमें
खड़े पितामह
भीष्म, गुरु
द्रोणाचार्य
आदिके पास
जाकर उनको
प्रणाम करते
हैं और उनसे
युद्धके
लिये आज्ञा
माँगते हैं ।
इससे
प्रसन्न
होकर वे
युधिष्ठिरको
युद्धमें
विजयी
होनेका
वरदान देते
हैं ।
प्रणामकी
इतनी महिमा
है कि
ऊँचे-से-ऊँचे
महात्मा जिस ‘वासुदेवः
सर्वम्’ (सब
कुछ भगवान्
ही हैं) का
अनुभव करते
हैं, वह भी
सबको प्रणाम
करनेसे
सुगमतापूर्वक
अनुभवमें आ
जाता है (श्रीमद्भा॰ ११/२९/१६-१९) ।
शरणागति
एक ही बार
होती है और
सदाके लिये
होती है । एक
बार ‘हे नाथ !
मैं आपका हूँ’
ऐसा कहनेके
बाद फिर और
क्या कहना
शेष रह गया ? एक
बार
अपने-आपको दे दिया
तो फिर
दुबारा क्या
देना शेष रह
गया ?
सकृदंशो
निपतति
सकृत्कन्या
प्रदीयते ।
सकृदाह
ददानीति
त्रीण्येतानि
सतां सकृत् ॥
(महाभारत॰वन॰ २९४/२६;
मनुस्मृति
९/४७)
कुटुम्बमें
धन आदिका
बँटवारा एक
ही बार होता है,
कन्या एक ही
बार दी जाती
है और किसी
वस्तुको
देनेकी
प्रतिज्ञा
भी एक ही बार
की जाती है ।
सत्पुरुषोंके
ये तीनों
कार्य एक ही
बार हुआ करते
हैं ।’
सिंह गमन
सज्जन वचन,
कदलि फलै इक
बार ।
तिरिया
तेल हम्मीर
हठ,
चढ़ै न
दूजी बार ॥
जैसे
विवाह
होनेपर
स्त्री मान
लेती है कि अब
मैं
ससुरालकी हो
गयी, पीहरकी
नहीं रही, ऐसे
ही ‘हे नाथ
! मैं आपका हूँ’
ऐसा कहकर मान
ले कि अब मैं
भगवान्का
हो गया,
संसारका
नहीं रहा ।
(शेष आगेके
ब्लॉगमें)
‒ ‘जित देखूँ तित तू’
पुस्तकसे
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