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(गत
ब्लॉगसे
आगेका)
जब
वे सतीजीके साथ
कैलास जा रहे थे, तब भी मार्गमें
भगवान् श्रीरामका
दर्शन करके उनकी
विचित्र दशा हो
गयी‒
सतीं सो
दसा संभु कै देखी
। उर उपजा संदेहु
बिसेषी ॥
संकरु
जगतबंद्य जगदीसा
। सुर नर
मुनि सब नावत सीसा
॥
तिन्ह
नृपसुतहि कीन्ह
परनामा । कहि सच्चिदानंद
परधामा ॥
भए मगन
छबि सासु बिलोकी
। अजहुँ प्रीति
उर रहति न रोकी
॥
इस
प्रकार सनकादि, जनक, भगवान्
शंकर आदि सभीका
स्वाभाविक ही
भगवान्की तरफ
खिंचाव होता है
। इस खिंचावका
नाम ही प्रेम है
।
श्रीमद्भागवतमें
आया है‒
आत्मारामाश्च
मुनयो निर्ग्रन्था
अप्युरुक्रमे
।
कुर्वन्त्यहैतुकीं
भक्तिमित्थम्भूतगुणो
हरि: ॥
(१।७।१०)
‘ज्ञानके
द्वारा जिनकी
चिज्जडग्रन्थि
कट गयी है,
ऐसे आत्माराम
मुनिगण भी भगवान्की
निष्काम भक्ति
किया करते हैं;
क्योंकि भगवान्के
गुण ही ऐसे हैं
कि वे प्राणियोंको
अपनी ओर खींच लेते
हैं ।’
कोई
कमी भी न हो और प्रेमकी
भूख भी हो‒यह प्रेमकी
अनिर्वचनीयता
है । सत्संगमें
लगे हुए साधकोंका
यह अनुभव भी है
कि प्रतिदिन सत्संग
सुनते हुए, भगवान्की लीलाएँ
सुनते हुए, भजन-कीर्तन करते
और सुनते हुए भी
न तो उनसे तृप्ति
होती है और न उनको
छोड़नेका मन ही
करता है । उनमें
प्रतिदिन नया-नया
रस मिलता है, जिसमें भूतकालका
रस फीका दीखता
है और वर्तमानका
रस विलक्षण दीखता
है* । इस प्रकार प्रेममें
पूर्णता भी है
और अभाव भी है‒यह
प्रेमकी अनिर्वचनीयता
है ।
ज्ञानमें
तो स्वरूपमें
स्थिति होती है, जिससे ज्ञानीको
सन्तोष हो जाता
है‒‘आत्मन्येव
च सन्तुष्ट:’ (गीता ३।१७),
परन्तु प्रेममें न
स्थिति होती है
और न सन्तोष होता
है, प्रत्युत
नित्य-निरन्तर
वृद्धि होती रहती
है । वास्तवमें
प्रेमका निर्वचन
(वर्णन) किया ही
नहीं जा सकता ।
अगर उसका निर्वचन
कर दें तो फिर वह
अनिर्वचनीय कैसे
रहेगा ?
डूबै
सो बोलै नहीं, बोलै
सो अनजान ।
गहरो
प्रेम-समुद्र
कोउ डूबै चतुर
सुजान ॥
भगवान्के
ही समग्ररूपका
एक अंश अथवा ऐश्वर्य
ब्रह्म है‒‘ते ब्रह्म तद्विदु:’ (गीता ७।२९), ‘ब्रह्मणो
हि प्रतिष्ठाहम्’ (गीता १४।२७) । समग्ररूप (समग्रम्)
विशेषण है और भगवान्
(माम्) विशेष्य
हैं‒‘असंशयं
समग्रं मां यथा
ज्ञास्यसि तच्छृणु’ (गीता ७।१) । इसी तरह भगवान्ने
अधियज्ञ(अन्तर्यामी)
को भी अपना स्वरूप
बताया है‒ ‘अधियज्ञोऽहमेवात्र
देहे’ (गीता ८।४) । अत: ब्रह्म विशेषण
है और अन्तर्यामी
भगवान् विशेष्य
हैं । इसलिये ज्ञानीका सम्बन्ध
विशेषणके साथ
होता है और भक्तका
सम्बन्ध विशेष्यके
साथ होता है । दूसरे
शब्दोंमें, ज्ञानीका
सम्बन्ध ऐश्वर्यके
साथ होता है और
भक्तका सम्बन्ध
ऐश्वर्यवान्के
साथ होता है ।
(शेष
आगेके
ब्लॉगमें)
‒‘जित
देखूँ तित तू’
पुस्तकसे
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*राम
चरित जे सुनत अघाहीं
। रस बिसेष जाना
तिन्ह नाहीं ॥
जीवनमुक्त
महामुनि जेऊ । हरि
गुन सुनहि निरंतर तेऊ ॥
(मानस, उत्तर॰ ५३।१-२)
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