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ज्ञानीकी
तो ब्रह्मसे ‘तात्त्विक
एकता’ होती
है पर भक्तकी भगवान्के
साथ ‘आत्मीय एकता’
होती है । इसलिये
भगवान् कहते
हैं‒‘ज्ञानी
त्वात्मैव मे
मतम्’ (गीता ७।१८) ‘ज्ञानी
तो मेरी आत्मा
ही है‒ऐसा मेरा
मत है ।’
यहाँ
‘ज्ञानी’ शब्द
तत्त्वज्ञानीके
लिये नहीं आया
है, प्रत्युत
‘सब कुछ भगवान्
ही हैं’‒इसका
अनुभव करनेवाले
ज्ञानी अर्थात्
शरणागत भक्तके
लिये आया है‒‘वासुदेव: सर्वमिति
ज्ञानवान् मां
प्रपद्यते’ (गीता ७।१९) । ज्ञानी (तत्त्वज्ञानी)-की
‘तात्त्विक एकता’
में तो जीव और
ब्रह्ममें अभेद
हो जाता है तथा
एक तत्त्वके सिवाय
कुछ नहीं रहता
। परन्तु भक्तकी
‘आत्मीय एकता’
में जीव और भगवान्में
अभिन्नता हो जाती
है । अभिन्नतामें
भक्त और भगवान्
एक होते हुए भी
प्रेमके लिये
दो हो जाते हैं
। यद्यपि भगवान्
सर्वथा पूर्ण
हैं, उनमें
किंचिन्मात्र
भी अभाव नहीं है,
फिर भी वे प्रेमके
भूखे हैं‒‘एकाकी न रमते’ (बृहदारण्यक॰१।४।३) । इसलिये
भगवान् प्रेम-लीलाके
लिये श्रीजी और
कृष्णरूपसे दो
हो जाते हैं‒
येयं
राधा यश्च कृष्णो
रसा-
ब्धिर्देहश्चैकः
क्रीडनार्थं
द्विधाभूत् ।
(राधातापनीयोपनिषद्)
वास्तवमें
श्रीजी कृष्णसे
अलग नहीं होतीं, प्रत्युत कृष्ण
ही प्रेमकी वृद्धिके
लिये श्रीजीको
अलग करते हैं ।
तात्पर्य है कि
प्रेमकी प्राप्ति
होनेपर भक्त भगवान्से
अलग नहीं होता, प्रत्युत
भगवान् ही प्रतिक्षण
वर्धमान प्रेमके
लिये भक्तको अलग
करते हैं । इसलिये
प्रेम प्राप्त
होनेपर भक्त और
भगवान्‒दोनोंमे
कोई छोटा-बड़ा नहीं
होता । दोनों ही
एक-दूसरेके भक्त
और दोनों ही एक-दूसरेके
इष्ट होते हैं
। तत्त्वज्ञानसे
पहलेका भेद (द्वैत)
तो अज्ञानसे होता
है, पर तत्त्वज्ञानके
बादका (प्रेमका
भेद भगवान्की
इच्छासे होता
है ।)
अभिन्नता
दो होते हुए भी
हो सकती है; जैसे बालककी
माँसे, सेवककी
स्वामीसे, पत्नीकी पतिसे
अथवा मित्रकी
मित्रसे अभिन्नता
होती है । इसलिये
भक्तिमें आरम्भसे
ही भक्तकी भगवान्से
अभिन्नता हो जाती
है‒‘साह ही
को गोतु गोतु होत
है गुलाम को’ (कवितावली,
उत्तर॰१०७) । कारण
कि भक्त अपना अलग
अस्तित्व नहीं
मानता । उसमें
यह भाव रहता है
कि भगवान् ही
हैं, मैं हूँ
ही नहीं ।
प्रेममें
माधुर्य है । अत:
‘प्रभु मेरे हैं’ ऐसे अपनापन होनेसे
भक्त भगवान्का
ऐश्वर्य (प्रभाव)
भूल जाता है । जैसे, महारानीका बालक
उसको ‘माँ मेरी
है’ ऐसे मानता
है तो उसका प्रभाव
भूल जाता है कि
यह महारानी है
। एक बाबाजीने
गोपियोंसे कहा
कि कृष्ण बड़े ऐश्वर्यशाली
हैं, उनके पास
ऐश्वर्यका बड़ा
खजाना है, तो
गोपियों बोलीं
कि महाराज
! उस खजानेकी चाबी
तो हमारे पास है
। कन्हैयाके पास
क्या है ? उसके पास
तो कुछ भी नहीं
है ! तात्पर्य है
कि माधुर्यमें
ऐश्वर्यकी विस्मृति
हो जाती है ।
(शेष
आगेके
ब्लॉगमें)
‒‘जित
देखूँ तित तू’
पुस्तकसे
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