(गत
ब्लॉगसे
आगेका)
संसारमें
तो ऐश्वर्यका
ही ज्यादा आदर
है, पर
भगवान्में माधुर्यका
ज्यादा आदर है
। जिस समय
भगवान्में माधुर्य-शक्ति
प्रकट रहती है, उस समय ऐश्वर्यशक्ति
दूर भाग जाती है,
पासमें नहीं
आती । वास्तवमें
भक्त भगवान्के
ऐश्वर्यको देखता
ही नहीं । कारण
कि भगवान्को
भगवान् समझकर
प्रेम करना भगवान्के
साथ प्रेम नहीं
है, प्रत्युत भगवत्ता
(ऐश्वर्य) के साथ
प्रेम है । जैसे,
धनको देखकर
धनवान्के साथ स्नेह
करना वास्तवमें
धनवत्ताके साथ
स्नेह करना है
।
प्रेमकी
जागृतिमें भगवान्की
कृपा ही खास कारण
है । प्रेमकी
वृद्धिके लिये
विरह और मिलन भी
भगवान्की कृपासे
ही प्राप्त होते
हैं । आदरपूर्वक
भगवल्लीलाका
श्रवण, वर्णन,
चिन्तन तथा
भगवन्नामका कीर्तिन
आदि साधनोंके
बलसे प्रेमकी
प्राप्ति नहीं
होती, प्रत्युत
समयका सदुपयोग
होता है, जिसको
वैष्णवाचार्योंने
‘कालक्षेप’ कहा है
। भगवान्की
कृपा प्राप्त
होती है उनकी शरण
होनेपर । शरण होनेमें
संसारके आश्रयका
त्याग मुख्य है
।
संसारसे
अलग होनेपर संसारका
ज्ञान होता है
और भगवान्से
अभिन्न होनेपर
भगवान्का ज्ञान
होता है । कारण
कि जीव संसारसे
अलग है और भगवान्से
अभिन्न है‒यह
वास्तविक, यथार्थ बात है
। परन्तु शरीर-संसारसे
एकता माननेसे
संसारका ज्ञान
नहीं होता और संसारका
ज्ञान न होनेसे
ही संसारकी तरफ
खिंचाव होता है
। इसी तरह भगवान्से
भिन्नता माननेसे
भगवान्का ज्ञान
नहीं होता है और
भगवान्का ज्ञान
न होनेसे ही भगवान्की
तरफ खिंचाव
नहीं होता । संसार अपना
नहीं है‒इस तरह
संसारका ज्ञान
होनेसे संसारसे
सम्बन्ध-विच्छेद
हो जाता है । भगवान्
अपने हैं‒इस तरह
भगवान्का ज्ञान
होनेसे भगवान्के
साथ अभिन्नता
होकर प्रेम हो
जाता है ।
(शेष
आगेके
ब्लॉगमें)
‒‘जित
देखूँ तित तू’
पुस्तकसे
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यदि जानना
ही हो तो
अविनाशीको
जानो,
विनाशीको जाननेसे
क्या लाभ ?
☼ ☼ ☼
जानेवालेको
जानेवाला
समझना और
रहनेवालेको रहनेवाला
समझना‒यही
यथार्थ समझ
है ।
☼ ☼ ☼
जिसको
पीछे सुलटा न
कर सकें, ऐसा
उलटा काम कभी नहीं
करना चाहिये ।
☼ ☼ ☼
प्रत्येक
परिस्थिति
भगवान्की
लीला (खेल) है,
उसे
देख-देखकर
मस्त होते
रहो !
☼ ☼ ☼
द्वैत
और अद्वैत
केवल
मान्यता है ।
तत्त्वमें न
द्वैत है, न
अद्वैत ।
☼ ☼ ☼
यदि
हमने कोई
अपराध नहीं
किया है,
हमारा कृत्य
ठीक है तो फिर
भय नहीं होना
चाहिये । अगर
भय होता है तो
कुछ-न-कुछ,
कहीं-न-कहीं
हमारी गलती
है अथवा अपनी
निर्दोषतापर
हमारा दृढ़ विश्वास
नहीं है ।
☼ ☼ ☼
प्रत्येक
कार्यके
आरम्भमें यह
विचार करना चाहिये
कि हम यह
कार्य क्यों
कर रहे हैं ?
☼ ☼ ☼
‒
‘अमृतबिन्दु’
पुस्तकसे
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