(गत
ब्लॉगसे
आगेका)
प्रश्न‒‘मैं पतिकी
हूँ’‒यह तो प्रत्यक्ष
दिखायी देता है, पर ‘मैं भगवान्का
हूँ’‒यह प्रत्यक्ष
दिखायी नहीं देता,
फिर इसको कैसे
मानें ?
उत्तर‒पहले
जमानेमें विवाहसे
पहले लड़का-लड़की
एक-दूसरेको नहीं
देखते थे । माता-पिता
ही दोनोंको भलीभाँति
देखकर उनकी सगाई
कर देते थे । एक
बार सगाई होनेपर
फिर उस सम्बन्धमें
कोई सन्देह नहीं
रहता था । जब
बिना देखे सगाई
हो सकती है, तो फिर बिना देखे
भगवान्को अपना
क्यों नहीं मान
सकते ? अवश्य
मान सकते हैं । जो
कहते हैं कि बिना
देखे भगवान्को
अपना कैसे मानें, उनकी अभी सगाई
ही नहीं हुई है,
विवाह होना
तो दूर रहा !
दूसरी
बात, किसीको
अपना माननेके
लिये उसे देखनेकी
जरूरत नहीं है,
प्रत्युत अपना
स्वीकार करनेकी
जरूरत है । हम
प्रतिदिन अनेक
मनुष्योंको देखते
हैं तो क्या उन
सबसे अपनेपनका
सम्बन्ध हो जाता
है ? उन सबसे
मित्रता हो जाती
है ? प्रेम हो
जाता है ? जिसको अपना
स्वीकार करते
हैं, उसीसे
प्रेम होता है
।
तीसरी
बात, हमारे
पास देखनेके लिये
जो नेत्र हैं,
वे जड़ संसारका
अंग होनेसे संसारको
ही देखते हैं,
संसारसे अतीत
चिन्मय भगवान्को
नहीं देख सकते
। हाँ, अगर भगवान्
चाहें तो वे हमारे
नेत्रोंका विषय
हो सकते हैं अर्थात्
हमें दर्शन दे
सकते हैं; क्योंकि
वे सर्वसमर्थ
हैं । इसलिये हमें प्रभुको
देखे बिना ही भगवान्के, शास्त्रोंके,
भक्तोंके वचनोंपर
विश्वास करके
‘मैं प्रभुका
हूँ और प्रभु मेरे
हैं’‒ऐसा स्वीकार
कर लेना चाहिये
। यही सर्वश्रेष्ठ
‘करणनिरपेक्ष
साधन’ है ।
नारायण !
नारायण !!
नारायण !!!
‒‘जित
देखूँ तित तू’
पुस्तकसे
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