एक बहुत ही
बढ़िया, श्रेष्ठ बात है
। इस ओर आप ध्यान
दें तो विशेष लाभ
होगा । बात यह है
कि हम भगवत्प्राप्ति, जीवन्मुक्ति, तत्त्वज्ञान, परमप्रेम, कल्याण, उद्धार आदि
जो कुछ (ऊँची-से-ऊँची
बात) चाहते हैं, उसकी प्राप्ति
स्वतःसिद्ध है
। यह बहुत ही मूल्यवान्
बात है । इसे आप
मान लें । इसे समझानेमें
मैं अपनेको असमर्थ
समझता हूँ । लोगोंकी धारणा
है कि माननेसे
क्या होता है ? केवल मान लेनेसे
क्या लाभ होगा ? इसलिये मेरी बातको
सुनकर टाल देते
हैं ।
अब आप ध्यान
दें । गीतामें
भगवान्ने कहा
है‒‘प्रकृतिं
पुरुषं चैव विद्ध्यनादी
उभावपि ॥’ (१३।१९) ‘प्रकृति
और पुरुष दोनोंको
ही तू अनादि जान’ । और
‘क्षेत्रज्ञ
चापि मां विद्धि
सर्वक्षेत्रेषु
भारत ।’ (१३।२) ‘हे अर्जुन
! तू सब क्षेत्रोंमें
क्षेत्रज्ञ अर्थात्
जीवात्मा भी मुझे
ही जान ।’ अभिप्राय
यह है कि प्रकृति
और पुरुष दोनों
भिन्न-भिन्न हैं‒ऐसा
मान लें । आप पुरुष
हैं और प्रकृति
आपसे भिन्न है
। तात्पर्य यह
निकला कि आप जिससे
अलग अर्थात् मुक्त
होना चाहते हैं, उस प्रकृतिसे
आप स्वत: मुक्त
हैं । केवल
आपने अपनी इच्छासे
प्रकृतिको पकड़
रखा है, उसे स्वीकार
कर रखा है । प्रकृतिको
पकड़नेसे ही दुःख
और बन्धन हुआ है
। इसे छोड़ दें तो
आप ज्यों-के-त्यों
(जीवन्मुक्त) ही
हैं ।
आप निरन्तर
रहनेवाले हैं
और प्रकृति निरन्तर
बदलनेवाली है
। वह आपसे स्वाभाविक
अलग है । प्रकृतिने
आपको नहीं पकड़ा
है अपितु आपने
ही प्रकृतिको
पकड़ा है और मैं-मेरेकी
मान्यता की है
। मैं-मेरेकी मान्यता
करना ही भूल है
। यह जो इन्द्रियोंसहित
शरीर है, यह ‘मैं’ नहीं
है और जो संसार
है, वह ‘मेरा’ नहीं
है । इस बातको मान
लेना है और कुछ
नहीं करना है । कारण कि वस्तुत:
बात ऐसी ही है ।
आप निरन्तर
रहनेवाले और संसार
निरन्तर जानेवाला
है‒इस ओर केवल
दृष्टि करनी है, और कुछ नहीं
करना है । यह करना-कराना
सब प्रकृति संसारके
राज्यमें है ।
जिस क्षण यह
विचार हुआ कि
हम संसारसे अलग
हैं, उसी क्षण मुक्ति
है ।
संसारसे
सम्बन्ध माननेमें
खास बात है‒उससे
सुख लेनेकी इच्छा
। यह सुख लेनेकी
इच्छा ही सम्पूर्ण
दुःखों, पापों, अनर्थों, दुराचारों, अन्यायों
आदिकी जड़ है । जबतक सांसारिक
पदार्थोंके संग्रह
और सुख-भोगकी इच्छा
रहेगी, तबतक
चाहे कितनी ही
बातें सुन लो, पढ़
लो, सीख
लो और चाहे त्रिलोकीका
राज्य प्राप्त
कर लो, फिर
भी दुःख मिटेगा
नहीं‒यह पक्की
बात है । संग्रह और
सुख-भोगकी वृत्ति
चेष्टा करनेसे
नहीं मिटेगी ।
यहाँ चेष्टाकी
बात ही नहीं है
। आपने मैं-मेरेकी
मान्यता की हुई
है । मानी हुई
बात न माननेसे
ही मिटती है, चेष्टासे
नहीं । विवाह होनेपर
स्त्री पुरुषको
अपना पति मान लेती
है, तो इसमें (पति
माननेमें) कौन-सी
चेष्टा करनी पड़ती
है ? बस, केवल मानना होता
है ।
(शेष
आगेके
ब्लॉगमें)
‒
‘तात्त्विक
प्रवचन’
पुस्तकसे
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