(गत
ब्लॉगसे
आगेका)
किसीसे सम्बन्ध
जोड़नेमें और सम्बन्ध
तोड़नेमें सब स्वतन्त्र
हैं । वास्तवमें हमारा
सम्बन्ध केवल
परमात्मासे है
। भूलसे हमने प्रकृतिसे
सम्बन्ध जोड़ लिया
। अब उस माने हुए
सम्बन्धको तोड़
लेना है‒बस, यही काम है । परमात्मासे
हमारा सम्बन्ध
स्वाभाविक और
सच्चा है, और प्रकृतिसे
हमारा सम्बन्ध
अस्वाभाविक और
बनावटी है । अस्वाभाविक
और बनावटी सम्बन्धको
तोड़ देना है । वह
टूटेगा प्रकृतिसे
अपना सम्बन्ध
न माननेसे । पहले अपनेको
बालक मानते थे, पर क्या अब अपनेको
बालक मानते हैं ? तो जैसे बालकपनके
साथ आपने मान्यता
की थी, वैसी
ही अब जवानीके
साथ मान्यता कर
ली कि ‘मैं
जवान हूँ’ । ऐसे
ही ‘मैं रोगी हूँ’, ‘मैं नीरोग हूँ’
आदि मान्यताएँ
कर लीं । वृद्धावस्थाके
साथ मान्यता कर
ली और फिर मृत्युके
साथ मान्यता कर
ली । विचार
करें कि मान्यता
करनेके सिवा आपने
और कौन-सी चेष्टा
की ? जैसे
आपने पहले अपनेको
बालक माना, वैसे ही अब अपनेको
बालक न मानकर जवान
मान लिया । तो केवल
मान्यता-ही-मान्यता
है । न कोई चेष्टा
है, न कोई विचार
। इतनी सुगम बात
संसारमें है ही
नहीं । केवल
संयोगजन्य सुखकी
इच्छाके ही कारण
कठिनाई हो रही
है । वह संयोगजन्य
सुख भी ऐसा है कि
जिससे परिणाममें
दुःख-ही-दुःख मिलता
है । सुखकी लालसासे
महान् अनर्थ होगा
ही । इसे टालनेकी
ताकत ब्रह्माजीमें
भी नहीं है । रुपये
मिल जायँ तो सुखी
हो जाऊँगा, पदार्थ मिल जायँ
तो सुखी हो जाऊँगा‒यहीं
सारी बात अटकी
हुई है । आजतक इन
पदार्थोंसे किसीको
पूर्ण सुख नहीं
मिला । मिल सकता
ही नहीं । बालकपनसे
ही सुख लेनेके
पीछे पड़े हैं ।
अबतक कितना सुख
ले लिया, बताओ ? धन भी इकट्ठा किया
है, विषय भोग भी
भोगे हैं, थोडी-बहुत मान-बड़ाई
भी मिली है‒इस
प्रकार संसारका
थोड़ा नमूना आप-हम
सभीने देखा ही
है । पर बताओ कि
क्या इनसे अभीतक
तृप्ति हुई है ? क्या इनसे पूर्ण
सुख मिला है ? यदि नहीं मिला
तो फिर इनके पीछे
क्यों पड़े हो ? क्या कोई वहम बाकी
रह गया है ? बाकी यही रहा
है कि बढ़िया दुःख
मिलेगा ! सिवाय
दुःखके और कुछ
नहीं मिलेगा ।
यह कोई मामूली, खेल-तमाशेकी
बात नहीं है । संयोगजन्य
सुख लेनेसे परिणाममें
दुःख होता ही है
। सच्चा सुख, आनन्द बाहरसे
नहीं आता अपितु
भीतरसे निकलता
है । सच्चे सुखका
अन्त नहीं आता
। एक बार मिलनेपर
फिर कभी बिछुड़ता
नहीं । पर जबतक
बाहरका सुख लोगे, उसकी इच्छा करोगे, उसे महत्त्व दोगे, तबतक भीतरका सुख
मिलेगा नहीं ।
संयोगजन्य
सुखकी इच्छाको
दूर करनेका उपाय
है ‘दूसरोंको
सुख कैसे मिले’
ऐसी जोरदार इच्छा
। भीतरमें व्याकुलता
उत्पन्न हो जाय
कि दूसरोंका दुःख
कैसे मिटे ? मैं
करनेपर जोर नहीं
देता हूँ अपितु
भाव बनानेपर जोर
देता हूँ । भावसे
चट काम होता है
। भाव
हो, तो करना स्वत:
हो जायगा । सम्पूर्ण
प्राणियोंके
सुखका भाव होनेपर
अपने सुखकी लालसा
सुगमतापूर्वक
मिट जायगी और अपने
सुखकी लालसा मिटनेपर
प्राप्त वस्तु-(मुक्ति,
प्रेम आदि-) का अनुभव
सुगमतापूर्वक
हो जायगा ।
नारायण !
नारायण !!
नारायण !!!
‒
‘तात्त्विक
प्रवचन’
पुस्तकसे
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