संसारमें
संयोग और वियोग‒दो
चीजें हैं । जैसे
आप और हम मिले तो
यह संयोग हुआ तथा
आप और हम अलग हुए
तो यह वियोग हुआ
। तो ये जो संयोग
और वियोग हैं, इन दोनोंमें वियोग
प्रबल है । तात्पर्य
यह कि संयोग
होगा कि नहीं होगा‒इसका
तो पता नहीं, पर वियोग
जरूर होगा‒यह
पक्की बात है । जिसका वियोग
हो जाय, उसका फिर संयोग
होगा‒यह निश्रित
नहीं, पर
जिसका संयोग हुआ
है उसका वियोग
होगा‒यह निश्चित
है । इससे यह सिद्ध
होता है कि जितने
भी संयोग हैं, सब वियोगमें जा
रहे हैं । प्रत्येक
संयोगका वियोग
हो रहा है । यह सबके
अनुभवकी बात है
। अब इसमें
बुद्धिमानीकी
बात यह है कि जिसका
वियोग अवश्यम्भावी
है, उसके वियोगको
हम अभी, वर्तमानमें
ही मान लें । फिर
मुक्ति, तत्त्वज्ञान, बोध अपने-आप
हो जायगा । कितनी
सरल बात है !
शरीर, इन्द्रियाँ, मन, बुद्धि, प्राण, ‘मैं’ पन‒सबका एक
दिन वियोग हो जायगा
। आप इनके वियोगका
अनुभव वर्तमानमें
ही कर लें । प्रत्येक
संयोग वियोगमें
बदल जाता है इसलिये
वास्तवमें
वियोग ही है, संयोग है
ही नहीं । संयोगरूपी
लकड़ी निरन्तर
वियोगरूपी आगमें
जल रही है ।
जीवका वास्तविक
सम्बन्ध परमात्माके
साथ है; जिसे ‘योग’ कहते हैं
। इसका कभी वियोग
नहीं होता । वस्तुत: परमात्मासे
जीवका वियोग कभी
हुआ ही नहीं । जीव
केवल परमात्मासे
विमुख हो जाता
है । मनुष्यका
संसारसे संयोग
होता है, योग नहीं होता
। संयोगका तो वियोग
हो जाता है, पर योग सदा रहता
है । जैसे यहाँ
हम दो महीनेके
लिये आये हैं ।
अब पंद्रह-बीस
दिन गुजर गये, तो क्या अब भी
दो महीने हैं ? ये पंद्रह-बीस
दिन वियुक्त हो
गये, हम
इनसे अलग हो गये
और अलग हो ही रहे
हैं । एक दिन पूरा
वियोग हो जायगा
। ऐसे मात्र पदार्थ, परिस्थिति, अवस्था आदिका
हमसे वियोग हो
रहा है । कोई नया
संयोग होगा तो
वह भी वियोगमें
जायगा । इसमें
क्या सन्देह है, बताओ ? तो इस वियोगको
ही हम महत्त्व
दें, इसे
ही सच्चा मानें
। फिर परमात्मामें
स्वत: हमारी स्थिति
हो जायगी । कारण
कि सचाईसे ही सचाईमें
स्थिति होती है
। परमात्मामें
स्थितिका ही नाम
है‒मुक्ति ।
(शेष
आगेके
ब्लॉगमें)
‒
‘तात्त्विक
प्रवचन’
पुस्तकसे
ठीक-बेठीक
हमारी
दृष्टिमें
होता है ।
भगवान्की
दृष्टिमें
सब ठीक-ही-ठीक
होता है,
बेठीक होता
ही नहीं ।
☼ ☼ ☼
दूसरे
हमारेमें
गुण देखते
हैं तो यह
उनकी सज्जनता
और उदारता है,
पर उन
गुणोंको
अपना मान लेना
उनकी
सज्जनता और
उदारताका
दुरुपयोग है ।
☼ ☼ ☼
विद्या
प्राप्त
करनेका सबसे
बढ़िया उपाय
है‒गुरुकी
आज्ञाका
पालन करना,
उनकी
प्रसन्नता लेना
। उनकी
प्रसन्नतासे
जो विद्या
आती है, वह
अपने उद्योगसे
नहीं आती ।
☼ ☼ ☼
‒
‘अमृतबिन्दु’
पुस्तकसे
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