एक बहुत सुगम
बात है । उसे विचारपूर्वक
गहरी रीतिसे समझ
लें तो तत्काल
तत्त्वमें स्थित
हो जायँ । जैसे राजाका
राज्यभरसे सम्बन्ध
होता है, वैसे ही परमात्मतत्त्वका
मात्र वस्तु, व्यक्ति क्रिया
आदिके साथ सम्बन्ध
है । राजाका सम्बन्ध
तो मान्यतासे
है, पर परमात्माका
सम्बन्ध वास्तविक
है । हम परमात्माको
भले ही भूल जायँ, पर उसका सम्बन्ध
कभी नहीं छूटता
। आप
चाहे युग-युगान्तरतक
भूले रहें तो भी
उसका सम्बन्ध
सबसे एक समान है
। आपकी स्थिति
जाग्रत्, स्वप्न या सुषुप्ति
किसी अवस्थामें
हो, आप योग्य हों
या अयोग्य, विद्वान् हों
या अनपढ़, धनी हों या निर्धन, परमात्माका सम्बन्ध
सब स्थितियोंमें
एक समान है । इसे
समझनेके लिये
युक्ति बताता
हूँ । आप मानते
हैं कि बालकपनमें
मैं था, अभी मैं हूँ और
आगे वृद्धावस्थामें
भी मैं रहूँगा
। बालकपन, जवानी और वृद्धावस्था‒तीनोंका
भेद होनेसे ‘था’, ‘हूँ’
और ‘रहूँगा’ ये
तीन भेद हुए, पर अपने होनेपनमें
क्या फर्क पड़ा ? भूत, वर्तमान
और भविष्य‒तीनोंमें
अपना होनापन (सत्ता)
तो एक ही रहा । अत:
आप कैसे भी हों, कैसे भी रहें, आपकी सत्ता
एक समान अखण्ड
रहती है । आपका
कभी अभाव नहीं
होता । वह सत्ता
ही शरीर, इन्द्रियाँ, मन, बुद्धि आदिको
सत्ता-स्कूर्ति
देती है । वह शरीरादिके
आश्रित नहीं है
। इससे यह सिद्ध
हुआ कि आप हरदम
‘है’ में स्थित
रहते हैं । जड़ वस्तु, क्रिया आदिका
सम्बन्ध न रखकर ‘है’ से सम्बन्ध
रखना है । यह जाग्रत्में
सुषुप्ति है ।
वह सत्ता मन, बुद्धि, इन्द्रियों, शरीरकी क्रियाओंमें
अनुस्यूत है ।
वही मन, बुद्धि आदिका
प्रकाशक, आधार
है । उस सर्व-प्रकाशक, सर्वाधारमें
हमें स्थित रहना
है । वह सत्ता सदा
ज्यों-की-त्यों
रहती है । जाग्रत्, स्वप्न, सुषुप्ति, स्थिरता, चंचलता, योग्यता, अयोग्यता, बालकपन, जवानी, वृद्धावस्था, विपत्ति, सम्पत्ति, विद्वत्ता, मूर्खता आदि सभी
उस सत्तासे प्रकाश
पाते हैं । वस्तुत: उसमें
आपकी स्थिति स्वतःसिद्ध
है । केवल उसकी
ओर लक्ष्य, दृष्टि करनी
है । शरीर, इन्द्रियाँ, मन, बुद्धि आदिके
साथ सम्बन्ध ही
मोह है । इस मोहका
नाश होनेपर स्मृति
जाग्रत् हो जाती
है‒‘नष्टो
मोह: स्मृतिर्लब्धा’ (गीता १८।७३) । स्मृतिका
अर्थ‒जो बात पहलेसे
ही थी, उसकी याद
आ गयी । कोई नया
ज्ञान होना स्मृति
नहीं है । अब चाहे कुछ
हो जाय, चाहे कोई व्यथा
आ जाय, अपनी
सत्तामें क्या
फर्क पड़ता है ? केवल अपनी
सत्ताकी ओर दृष्टि
करनी है, फिर इसी क्षण
जीवन्मुक्ति
है । इसमें कोई
अभ्यास नहीं करना
है ।
सत्ताकी ओर
दृष्टि न करें, तब भी वह वैसी-की-वैसी
ही रहती है । पर
उस ओर दृष्टि न
करनेसे आप अपनी
स्थिति क्रियाओं, पदार्थों, अवस्थाओं आदिमें
मानते हैं । भोजन
करते समय ‘मैं खाता हूँ’, जल पीते समय ‘मैं पीता हूँ’, जाते समय ‘मैं जाता हूँ’
आदि सब स्थितियोंमें
‘हूँ’ समान ही
रहता है । यदि ‘मैं’ को हटा दें
तो ‘हूँ’ नहीं रहेगा
अपितु ‘है’ रहेगा । वह
‘है’ सदा ज्यों-का-त्यों
रहता है ।
खोया कहे
सो बावरा पाया कहे
सो कूर ।
पाया खोया
कुछ नहीं ज्यों-का-त्यों
भरपूर ॥
इस ‘है’ में स्थित
होते ही अखण्ड
समाधि, जाग्रत्-सुषुप्ति
हो जाती है ।
नारायण !
नारायण !!
नारायण !!!
‒
‘तात्त्विक
प्रवचन’
पुस्तकसे
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