यह जो आप मानते
हैं कि । ‘मैं हूँ’
तो इसमें एक विशेष
बात ध्यान देकर
सुनें । आप अकेले
‘मैं हूँ’ ऐसा
मानते हो तो यह
‘हूँ’ पना एकदेशीय
है, और ‘तू है’, ‘यह है’, ‘वह है’‒ये ‘है’
पना व्यापक है
। तो यह ‘है’ ही ‘मैं’ के कारण ‘हूँ’ बना । अगर
‘मैं’ न हो
तो केवल ‘है’ ही रहेगा
। तो यह
‘मैं’
तब होता है, जब
कुछ चाहना होती
है । मनुष्य कुछ करना
चाहता है, कुछ जानना चाहता
है, कुछ पाना चाहता
है । तो कुछ-न-कुछ
चाहना है, तभी ‘मैं
हूँ’ है । अगर कुछ
भी चाहना न रहे, तो ‘है’ ही रहेगा ।
आपने अनादिकालसे
‘हूँ’ (जो ‘नहीं’
है) में अपनी स्थिति
मान रखी है । ‘है’ में स्थिति
होनेपर ‘है’ नहीं रहता
। इसकी तो ऐसी
महिमा हमने पढ़ी
है कि एक बार जो
‘है’ में स्थित हो गया, तो फिर उसे
जानने, करने, पानेकी किञ्चिन्मात्र
भी जरूरत नहीं
रहती । वह ‘है’ में स्थित
हो गया तो न करना
रहा, न जानना रहा, न पाना रहा
। कुछ भी नहीं रहा
। एक ‘है’ ही रह गया
। वहाँ तो पूर्णता
है । जबतक साथमें ‘नहीं’
रहता है, तबतक पूर्णता
नहीं होती । पूर्णतामें
आंशिकरूपसे भी
‘नहीं’ नहीं
रहता । तो एक बार
‘है’ में स्थिति होनेपर
फिर कभी उसमें
‘हूँ’ नहीं आता । जो ‘हूँ’ का पुराना
संस्कार है, वह मन-बुद्धिमें
स्फुरित हो सकता
है, पर ‘है’ में ‘हूँ’ नहीं आता ।
मन-बुद्धिमें
इसलिये आता है
कि मन-बुद्धि उसके
साथ रहे हैं । इसलिये
जैसे कोई पुरानी
बात याद आ जाय, ऐसे ‘हूँ’ आता है । वास्तवमें
तो ‘हूँ’ है ही नहीं, फिर आये कहोंसे ? जो याद आ जाय वह
वास्तवमें होती
नहीं । केवल पुरानी
देखी, सुनी, भोगी हुई वस्तुकी
यादमात्र आती
है, वस्तु तो आती
नहीं । ऐसे ही ‘हूँ’ की याद आ जाय, तो वह है नहीं
। उस ‘है’ में सबकी स्थिति
है ।
अब एक खास बात
बतायी जाती है
। ध्यान देकर
सुनें । वह यह कि
वास्तवमें हम
क्या चाहते हैं‒इसकी
तरफ खयाल करें
। कई तरहकी चाहनाएँ
इकट्ठी करनेके कारण मनुष्य
वास्तवमें क्या
चाहता है, इसे भूल गया ।
पर भूलनेपर भी
भूलता नहीं । उसे
हरदम याद रहता
है, परन्तु पूछनेपर
ठीक जवाब नहीं
दे सकता; क्योंकि उसने
इसपर अभी विचार
ही नहीं किया ।
यदि विचार
करें तो यह पता
लगता है कि मैं
सदा रहना चाहता
हूँ । कोई भी व्यक्ति
ऐसा कभी नहीं चाहता
कि मैं मिट जाऊँ
। किसी वक्त दुःखमें
ऐसा कहता है कि
मर जाऊँ तो सुखी
हो जाऊँ । वह शरीरको
दुःखका कारण मानता
है, इसलिये दुःख
मिटानेके लिये
शरीरको मिटाना
चाहता है कि मैं
सुखी हो जाऊँ ।
तो मैं बना रहूँ
और सुखी रहूँ‒यह
चाहना तो रहती
ही है । धन, सम्पत्ति, वैभव, मान, बड़ाई, नीरोगता आदिकी
जो चाहना होती
है, यह असली हमारी
चाहना नहीं है
। हमारी चाहना
तो सदा रहनेकी
है । और सदा रहनेका
नाम ‘है’ है । जो नित्य-निरन्तर
रहता है, उसे ही ‘है’ कहते हैं ।
उस ‘है’ में स्थित होते
ही हमारी नित्य-निरन्तर
रहनेकी चाहना
पूरी हो जाती है
। पर यदि दूसरी
चाहना करता है, तो ‘है’ से अलग हो
जाता है; क्योंकि
जो चीज अभी नहीं
है, उसे पानेकी चाहना
हुई, तो चाहना ‘नहीं’ की ही
हुई । ‘नहीं’ को पकड़नेसे
ही चाहना होती
है । यदि ‘नहीं ' को न पकड़े, तो ‘है’ में ज्यों-का-त्यों
है ।
(शेष
आगेके
ब्लॉगमें)
‒
‘तात्त्विक
प्रवचन’
पुस्तकसे
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