(गत
ब्लॉगसे
आगेका)
चाहना सदा
‘नहीं’ की
होती है । ‘है’ पन तो सदा रहता
है, कभी मिटता
नहीं । जिस अंशमें
‘है’ से विमुख होते
हैं, उसी
अंशमें ‘नहीं ' की चाहना करते
हैं । चाहनासे
ही उस अंशमें ‘है’ से अलग होते
हैं, नहीं तो ‘है’ से अलग होनेकी
सामर्थ्य किसीमें
है नहीं । चाहनेपर भी
अपना होनापन तो
मानते ही हैं ।
‘नहीं’ की
चाहनाका त्याग
कर दें, फिर ‘है’ में स्थिति
स्वतःसिद्ध है
।
हम ज्ञान चाहते
हैं, जानना
चाहते हैं । तो
यह जानना भी ‘है’ में स्वत: सिद्ध
है, पर ‘नहीं ' को पकड़नेसे जाननेकी
चाहना होती है
। यदि ‘नहीं
' को न पकड़ें
तो जाननेकी चाहना
भी समाप्त हो जायगी
।
हम क्या नहीं
चाहते हैं ? हम दुःखी
होना नहीं चाहते
हैं । ‘है’ में दुःख
है ही नहीं । ज्ञानमें
दुःख है ही नहीं
। किसी बातका ज्ञान
हुआ, तो
स्वत: एक शान्ति, एक सुखका अनुभव
होता है; क्योंकि ज्ञान
आनन्दरूप है ।
इस प्रकार
हमारी चाहना हुई‒सत्, चित् और आनन्दकी
प्राप्ति, जो स्वत: अपनेमें
है । जो मिटता है, उसे ‘असत्’ कहते हैं, पर जो कभी नहीं
मिटता, उसे ‘सत्’
कहते हैं । जिसमें
ज्ञान नहीं है, उसे जड़ कहते हैं
। तो ज्ञानमात्र
चेतन है । जहाँ
कभी दुःख आता ही
नहीं, वही
आनन्द है । तो ये
सत्, चित्
और आनन्द सबको
स्वत: प्राप्त
हैं । हमारा स्वरूप
सच्चिदानन्द
है । अब जहाँ उत्पन्न
और नष्ट होनेवाली
वस्तुको पकड़ा
कि आफत आयी । जो उत्पन्न
और नष्ट होनेवाली
वस्तु है, वह आपका स्वरूप
नहीं है । उसे पकड़नेसे
ही दुःख पा रहे
हैं । धन नहीं है, पुत्र नहीं है, घर नहीं है‒इस
प्रकार कई तरहकी
नहीं-नहींको पकड़
लिया । इसी कारण
अपने सच्चिदानन्दस्वरूपका
अनुभव नहीं हो
रहा है ।
(शेष
आगेके
ब्लॉगमें)
‒
‘तात्त्विक
प्रवचन’
पुस्तकसे
चरित्रकी
सुन्दरता ही
असली
सुन्दरता है ।
☼ ☼ ☼
याद
करो तो
भगवान्को
याद करो, काम
करो तो सेवा
करो ।
☼ ☼ ☼
सच्ची
बातको
स्वीकार
करना
मनुष्यका
धर्म है ।
☼ ☼ ☼
एक-एक
व्यक्ति खुद
सुधर जाय तो
समाज सुधर
जायगा ।
☼ ☼ ☼
अगर
अपनी
सन्तानसे
सुख चाहते हो
तो अपने माता-पिताको
सुख पहुँचाओ,
उनकी सेवा
करो ।
☼ ☼ ☼
किसीके
अहितकी
भावना करना
अपने अहितको
निमन्त्रण
देना है ।
☼ ☼ ☼
याद
रखो, भगवान्का
प्रत्येक
विधान आपके
परम हितके
लिये हैं ।
☼ ☼ ☼
‒
‘अमृतबिन्दु’
पुस्तकसे
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