(गत
ब्लॉगसी
आगेका)
ध्यान देना
इस बातपर । किसके
द्वारा छूटता
है ? कि निवृत्ति
आयी, प्रवृत्ति
गयी । निवृत्ति
गयी, प्रवृत्ति
आयी । कहाँ गयी, कहाँ आयी बताओ
। प्रवृत्ति-निवृत्तिका
अभाव हुआ कि नहीं ? इनका अभाव हुआ
तो ‘द्वारा’ की
जरूरत क्या ? एक ऐसा आग्रह छोड़
दो । किसके द्वारा
कि तुम्हारे खुदके
द्वारा । ‘ऐसी वृत्ति
निरन्तर रहे’ यह
आग्रह छोड़ दो ।
इसमें हानि नहीं
होगी । बहुत साफ है,
इसमें सन्देह
नहीं है । प्रवृत्ति
और निवृत्ति दोनों
प्रकाशित होती
हैं स्वत: और ये
होती रहें । अपने कोई मतलब
नहीं है । दुनियामात्रमें
प्रवृत्ति और
निवृत्ति होती
है कि नहीं ? जागृतमें काम
करते हैं । नींदमें
काम नहीं करते
। दीखता है न । उससे
तुम्हारे क्या
फर्क पड़ता है ? दुनियामें जो
प्रवृत्ति होती
है उससे तुम्हारेमें
फर्क पड़ता है क्या ? तुम्हारे प्रकाशमें
जो स्वयं प्रकाश
स्वरूप है उसमें
फर्क नहीं पड़ता
है न । तो इसकी चिन्ता
क्यों करते हो ? ये जो संसारकी
प्रवृत्ति-निवृत्ति
है वही तुम्हारे
शरीरकी प्रवृत्ति-निवृत्ति
है । दोनों बिलकुल
एक धातुकी हैं
।
प्रश्न‒संसारके प्रवाहमें
बह जाते हैं, जिससे
सन्तोष नहीं होता
।
उत्तर‒यह तो गलती
करते हो । सन्तोष
क्यों नहीं होता
है ? इसका कारण
है कि आप समझते
हैं कि अन्तःकरण
निर्विकार रहे‒यह
आपने पकड़ लिया
। अन्तःकरण निर्विकार
नहीं होता‒यह
पकड़ छोड़ दो । अन्तःकरण
निर्विकार रहना
चाहिये‒यह छोड़
दो । निर्विकार
कैसे रहेंगे, जब यह कार्य
है प्रकृतिका ? यह निर्विकार
कैसे रहेगा ? इसमें तो
विकार होगा ।
प्रश्न‒महाराजजी ! एक
बात कहूँ, आप कहते
हैं न कि ये छोड़
दो । तो एक भय-सा
लगता है । ऐसा विचार
आता है कि छोड़नेसे
कहीं मेरा पतन
न हो जाय ।
उत्तर‒इसीलिये
मैंने बार-बार
कहा कि मेरे कहनेसे
छोड़ दो । यह क्यों कहा ? क्योंकि भय है
तुम्हें । तुम्हारे
भयका असर है मेरेपर
। तुम भयभीत हो
रहे हो । इसलिये
कहता हूँ तुम डरो
मत । जबतक यह
पकड़ है, तबतक वास्तविक
स्थिति नहीं होगी
। वास्तविक स्थितिमें
यह पकड़ ही बाधक
है और कोई बाधक
नहीं है । प्रकाशमें
पतन होता ही नहीं
। प्रवृत्ति-निवृत्ति
दोनोंमें प्रकाश
समान रहता है ।
ये बताओ उसमें
फर्क पड़ता है क्या ? उसमें फर्क नहीं
पड़ता तो उसका पतन
कैसे हो जायगा ? तुम मानते हो अन्तःकरणमें
निर्विकारता
आ जाय । अगर आ जाय
तो‒
प्रकाश च प्रवृत्तिं
च मोहमेव च पाण्डव
।
न द्वेष्टि
सम्प्रवृत्तानि
न निवृत्तानि
काङ्क्षति ॥
(गीता १४।२२)
ये कहना कैसे
बनता ? प्रकाश, प्रवृत्ति और
मोह अगर न होता, तो ‘न द्वेष्टि
सम्प्रवृत्तानि
न निवृत्तानि
काङ्क्षति’ कैसे कहते ?
प्रश्न‒यह तो महाराजजी
! उन महापुरुषोंकी
बात है जिनको साक्षात्कार
हो गया ।
उत्तर‒वे महापुरुष
हम ही हैं । वे महापुरुष
अलग नहीं हैं ।
हम ही महापुरुष
हैं । प्रकाशका
नाम ही महापुरुष
है । डरो मत इसमें
। बिलकुल डर नहीं
। ये जो सामान्य
प्रकाश है, इस स्थितिवालेको
ही महापुरुष कहते
हैं । महापुरुष कहो
चाहे ब्रह्म कहो
। उस सामान्य प्रकाशमें
क्या फर्क पड़ता
है ? तो सामान्य
ब्रह्म है वह एक
है । एक तो
भय छोड़ दो और एक
आगे कुछ विलक्षणता
होगी, इस आशाको
छोड़ दो । ये दो छोड़
दो । ये दो ही बाधक
हैं असली ।
(शेष
आगेके
ब्लॉगमें)
‒ ‘जीवनोपयोगी
प्रवचन’
पुस्तकसे
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